गुरुवार, 10 मई 2012

इस रात कि सुबह

भ्रष्टाचार के जो मौजूदा मामले प्रकाश में आ रहे है वो सब चौकाने वाले है .देख कर हैरत हो रही है कि सरकारी तंत्र का हर  महकमा सर से पांव तक डूबा हुआ है .उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के तजा मामले बेचैन कर देने  वाले है .मध्य प्रदेश में तो यह बिमारी कुछ ज्यादा ही संक्रामक हो गई है .यही स्थिति रही तो पानी को सर के ऊपर जाने में अधिक समाया नहीं लगेगा .भ्रस्ताचार का रोग पूरे देश में बहुस्तरीय हो चूका है सरकारी अफसर और कर्मचारी जोर शोर से धन उगाही में लगे है .यह दृश्य मन में कुछ प्रश्नों को भी जन्म देता है ,पहला प्रश्न तो ये कि सरकारी तन्त्र को मोरल सपोर्ट कहा से मिलता है ?इन अधिकारिओं और कर्मचारियो कि हिफाजत कौन करता है ? उन परिस्थितिओं का असली   निर्माता कौन है ? ये सारे प्रश्न एक दुसरे तंत्र कि तरफ इशारा करते हैं जिन्हें भारत भाग्य विधाता होने कि जिम्मेदारी हम सब ने सौंप रक्खी है , संसदीय भाषा में इन्हें माननीय कह कर संबोधित करते हैं, असंसदीय भाषा में इनके लिए संबोधनों कि भरमार है पर उनका प्रयोग अधिक प्रचलित नहीं है
सरकारी मशीनरी के ऊपर विराजमान राजनैतिक तंत्र ही इन सब का असली रहनुमा है. देश कि अन्य नीतियों कि तरह भ्रष्टाचार कि नीतियों के निर्माता भी ये ही है
भ्रष्टाचार कि गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय इन्ही को है.
भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली छापे मारियों में सरकारी तंत्र के एक आद मुर्गे फंसते जरूर है पर अभी तक कुर्बान एक भी नहीं हैं, परन्तु इनके रहनुमा फसने और कुर्बान होने जैसी सांसारिक घटनाओं से अछूते रह जाते है, इनके इर्द गिर्द मौजूद  संवैधानिक अड्चानो को भेद पाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है , पुलिस, प्रशाशन सी बी आई सब इनके आगे घुटने टिकते हैं .
भविष्य में यदि लोकपाल कि व्यवस्था केंद्रीय स्तर पर हो पाएगी तो उसका हश्र भी देखा जायेगा परन्तु फ़िलहाल जो स्थिति है वह laailaj नजर आती है और बार बार मन में यही ख़याल  आता है कि आखिर इस रात कि सुबह कब होगी .

रविवार, 6 मई 2012

टीम अन्ना का बिखरता सम्हलता आन्दोलन

अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ  एक  जरूरी  मुहीम  शुरू  की  थी .वास्तव  में ये कोई  राजनीतिक प्रयास   न हो  कर एक   नागरिक  प्रयास  था .इस  आन्दोलन  में प्रत्यक्ष  और अप्रत्यक्ष रूप में एक  बड़े  जन  समूह ने हिस्सा लिया .मीडिया और सोशल  नेटवर्किंग  साइटों  ने भी अहम्  भूमिका  निभाई .आन्दोलन  ने संसद से सड़क  तक  काफी  हंगामा  खड़ा  किया .एक समय   तो लगने लगा था  की यह लड़ाई एक  निर्णायक  मुकाम  तक  पहुच   जायेगी पर कुछ  वाजिब  और कुछ  गैरवाजिब  कारणों  के चलते यह  आन्दोलन  विखर गया .
इतिहास  साक्षी  है की लगभग  सभी आन्दोलन  विखर -विखर  कर ही सम्हले है .सैद्धांतिक  रूप  से इस की व्याख्या बड़ी सरल  है .कोई भी  आन्दोलन  कई चरणों  में अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है .जिस  प्रकार  हथोड़ी से बार बार  प्रहार  करने पर एक  सार्थक  ध्वनि  उत्पन्न  होती है ,उसी प्रकार  एक  आन्दोलन  को भी  बार बार अपने विपक्षी  पर प्रहार करना  होता है ,यह  प्रहार  हथोड़े के प्रहार  से भिन्न होता है .यह प्रहार एक मुट्ठी चावल की तरह होता है जो अपने लक्ष्य से टकरा कर  विखर जाते है .आन्दोलन के संचालकों  को उन  दानो  को फिर एकत्त्र कर के अगले प्रहार  के लिए तैयार करना होता है .एह क्रम  कई बार चलाना होता है पूरी निष्ठा और धैर्य के साथ .
टीम अन्ना का आन्दोलन एक  ऐसे ही दौर से गुजर रहा है .यह पहले चरण  का प्रहार करके विखर  गया है .पर यह कोई  निराशाजनक  स्थिति नहीं है बल्कि यह आन्दोलन  के विकास  की एक  अनिवार्य  अवस्था  है ,जरूरत इस बात की है  की आन्दोलन  की विखरी  कड़ियों को जोड़ा जाए ,उन्हें  पुनः संगठित  किया जाए  और नए  प्रहार की तैयारी की जाये .




शुक्रवार, 4 मई 2012

रॉक स्टार फिल्म के बहाने

पिछले दिनों  रॉक  स्टार  देखी .इम्तिआज़ अली ने एक बहुत  ही  खूबसूरत  फिल्म  बनाई है .फिल्म पूरी तरह से एक  प्रेम कहानी है पर यह   कहानी उन  तमाम  कहानिओ  से  बिलकुल अलग है जो हम अब  तक  देखते आये  है .फिल्म में दिखाई गई प्रेम  कहानी की शुरुवात तो बड़े  ही मजाकिया ढंग से होती है लेकिन  कहानी के विकास  के साथ  साथ  इस  कहानी  का स्वभाव बदलने लगता है .शोखी और चुहल से भरा प्रारंभिक  प्रेम  अंत तक  विध्वंसक हो जाता है .एह दोधारी तलवार की तरह दोनों को मारता है .
फिल्म को देखने के बाद धर्मवीर भारती के उपन्यास  गुनाहों का देवता की याद तजा हो गई .इस  उपन्यास  का प्रेम  भी  प्रेमी जोड़े को पनपने नहीं देता दोनों धीरे धीरे प्रेम की तीव्रता में घुलते जाते है .इम्तियाज  ने भी अपने प्रेमी जोड़े को इसी अंजाम  तक  पहुचाया है .
ये दो उदाहरण   कल्पना   की दुनिया के है जहाँ प्रेम  एक  नकारात्मक  परिणाम तक  पहुचता है पर असल  जिंदगी में प्रेम  की क्या स्थिति है ?क्या प्रेम  की प्रकृति  विध्वंसक है ?क्या वह कोई  विकार है ?इसका जवाब तो कोई दार्शनिक या पागल  ही दे सकता है ,पर ये सवाल  हमें पल भर ठहर कर सोचने को मजबूर अवश्य करते है .प्रेम की प्रकृति तो चाहे विध्वंसक  न हो पर उसकी परिणति जरूर  विध्वंसक  है .सामाजिक  विसंगतियां प्रेम जैसे सात्विक  भाव  को मलिन कर देती है .जिसके कारण  प्रेम  का फल  मीठा के बजाये कडुआ  हो जाता है .ऊपर के दोनों उदाहरणों में सामाजिक  जटिलताएं ही असली खलनायक  हैं .प्रेम  को जहरीला येही बनाती है .इन्ही के चलते प्रेम  जैसा सर्वोच्च सृजनात्मक  भाव  आत्म-हन्ता भाव  बन जाता है .

मंगलवार, 1 मई 2012

फुरसत के पल

आज  के समय में सबसे मुश्किल  है फुर्सत के पल  पाना। हम सब  कुछ खरीद  सकते  हैं  फुर्सत के पलों के सिवा।बहुत  सी चीजें  हैं  जिन्होंने इन  पलों को हम   से छीन  लिया  है  ।  अड्डेबाजी जैसे शब्द हमारे जीवन से दूर होते जा रहें हैं चौपाल जैसे बैठके अब शायद ही कही होती हो .पर कहना गलत होगा की ये सारी  चीजें  पूरी तरह से विलुप्त हो गयी है बल्कि ये किसी अन्य रूप में हमारे बीच है .हमारे फुर्सत के पल अब यही बीतते है .अड्डेबाजी की सारी खुराक हमें यहीं से मिलती है .गप्पबाजी ,मस्ती ,टीका टिप्पड़ी ,सब तो होता है .रास्ट्रीय,अंतररास्ट्रीय मुद्दे .फिल्म .खेल . राजनीति .साहित्य ,समाज ,रोजगार .पर्यावरण  सब की खबर यहाँ ली जाती है . 
पर आज  के दौर में होने वाली इस बैठकी का सबसे खास लक्षण है सदस्यों की आभासी उपस्थिति .साडी क्रियाएँ ,विमर्श .चुहल सब एक  आभासी दुनिया में घटित होती है .अन्य विशेषताओं में हम इसकी अतिप्रभओशीलता और बड़े समूह की भागीदारी .इस गप्पबाजी में बड़े समूह की उपस्थिति ही इसकी अति प्रभावशीलता का कारण है . कई उदाहरण हम अपने वास्तविक जीवन में देखते रहते है .कई सामजिक  राजनीतिक  आन्दोलन इसे अड्डेबाजी के बलबूते पर परवान चढ़े .अरब  की क्रांति  हो ,भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने देश की अंगड़ाई हो या अब निर्मल बाबा को ले कर हो रही खुसुर फुसुर  ये सब हमारे आद्देबजो के बल बूते पर ही तो हो सका है .जिनका न तो कोई चेहरा है ना ही नाम ,पर ये वो है जो किसी आन्दोलन को दिन रात  हवा देते रहते है.