मंगलवार, 24 जुलाई 2012
संगमा की बौखलाहट
राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे सामने है .प्रणव मुखर्जी के पक्ष में जो अंकगणित थी , ये परिणाम उसी के अनुरूप है .प्रणव ने भारी जीत दर्ज की है .इसमें संप्रग गठबंधन का तो हाथ है ही साथ ही उनकी निजी छवि ने भी वोट जुटाने में अहम् भूमिका अदा की है .प्रणव आज की राजनीति में उन कुछ बिरले नेताओं में से है जिनकी पैठ हर दल में है . वे राजनीति के पुराने धुरंधर है जिनके पास एक लम्बा प्रशासनिक और संसदीय अनुभव है .उनके जैसे कार्यकर्ता के लिए ये उचित ही है की उनकी विदाई देश के सर्वोच्च पद से हो .राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को ले कर आज पूरे देश में संतोष और स्वागत का भाव है ., एक शख्स को छोड़ कर .ये है उनके प्रतिद्वंदी पी ए संगमा.
शनिवार, 21 जुलाई 2012
कुछ टूटा फूटा
उनकी सत्ता
ये फेटें सत्ते पे सत्ता
सत्ता की छत्ता में
ये घुमड़े मदमत्ता
हाथ में साधे छूरी चाकू
मुहँ में चापें पान का पत्ता
संसद में भरें कुलांचे
भये इकठ्ठा सारे लत्ता
जनता के दुःख सुख खट्टा मिट्ठा
मुद्दे हो गए दही और मट्ठा
कान में लुकड़ी डाल के
सोयें मुलुक के कर्ता धर्ता
जो चाहे वो बहे बिलाए
इनको तो बस
कोई फरक नहीं अलबत्ता
बुधवार, 18 जुलाई 2012
मैं तेरी आँखों में आंसू नहीं देख सकता ,पुष्पा !
बचपन में मार धाड़ वाली फिल्मे मुझे बहुत पसंद थी .जिसमे हीरो एक साथ कई
गुंडों की धुनाई करता था .पर उम्र बदली तो पसंद भी बदली .कोई दसवीं क्लास
में था ,जब पहली बार मैंने "आनंद " देखी थी .हृषिकेश मुखर्जी की अद्भुत
रचना है ये फिल्म .आनंद के रूप में एक अनूठा चरित्र पेश किया था उन्होंने
,जो तब से पहले हिंदी सिनेमा का हिस्सा नहीं था .एक क्लासिक फिल्म के सारे
स्वाद है इस फिल्म में ...ये सारी बाते तो बाद में पता चली .थोडा और बड़े
होने पर .उस वक्त जिस चीज ने दिल को सबसे जादा छुआ वो थी राजेश खन्ना की
नायाब अदाकारी ..आनंद की रचना तो जरूर हृषिकेश मुखर्जी ने की थी ,पर उसे
जीवंत बनाया राजेश खन्ना ने .अपने सरल और सहज अभिनय से उन्होंने आनंद को
हिंदी सिनेमा का अमर चरित्र बना दिया .इस रोल ने मेरे मन पर ऐसी छाप छोड़ी
कि राजेश खन्ना की हर फिल्म में वो मुझे आनंद ही नजर आये .अगर भारतीय
फिल्म इतिहास की सारे नायकों की पड़ताल की जाये तोमेरी समझ से कोई दूसरा
कलाकार आनंद के रोल में फिट न बैठता .ये किरदार सिर्फ वो ही निभा सकते थे
.और उन्होंने बखूबी निभाया भी .
वो हमारे हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे .जो स्टारडम,जो शोहरत राजेश खन्ना के हिस्से आई वो फिर किसी को नहीं मिली . उन्हें देखने के लिए दीवाने दर्शको की भीड़ लग जाती थी .उनकी गाड़ियों पर प्रेम सन्देश लिखे जाते थे .लडकिया उनकी तस्वीर से शादी रचाती थी ....फिल्म उद्योग में ऐसा एखलाक, ऐसी स्वीकार्यता किसी को नहीं मिली..... .वो एक बेहतर कलाकार ही नहीं एक बेहतर इंसान भी थे .
राजेश खन्ना ने फिल्म जगत में तब कदम रखा जब हिंदी सिनेमा की महान तिकड़ी (राज कपूर ,दिलीप कुमार,देव आनंद ) अपने अवसान पर थी .इस तरह इंडस्ट्री में जो एक खालीपन आ गया था ,उसे राजेश खन्ना ने ही भरा .वो मानो इस तिकड़ी के सम्मिलित अवतार थे . इन तीनो कीखूबियाँ उनमे थीं . उनके अभिनय में राज कपूर की सादगी थी ,तो दिलीप साहब की नफासत भीऔर देव आनंद का चुलबुलापन भी .उन्होंने दर्शकों को पूरी खुराक दी .बदले में दर्शकों ने उन्हें भरपूर प्यार से नवाजा .तभी फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें रिकार्ड सफलता मिली .लगातार १५ सुपर डुपर हिट फ़िल्में देना उन्ही के बस का था .१५० से अधिक फिल्मों में अभिनय करने वाले राजेश खन्ना ने २५ सालों तक इंडस्ट्री पर राज किया .उन्होंने साबित किया की वही इस इंडस्ट्री के पहले सुपरस्टार है .
सिनेमा के परदे पर राजेश खन्ना की इमेज एक रोमांटिक नायक की थी .वो एक ऐसे मध्य वर्गीय युवा को चित्रित करते थे जो परम्पराओं से जूझते हुए अपना रास्ता बनाता था .जिसे कभी मान मर्यादा के नाम पर कुर्बानी देनी पड़ती थी तो कभी नियति के निर्णय के आगे विवश हो जाना पड़ता था .जो बेहद रोमांटिक था लेकिन दिलफेंक जरा भी नहीं .उसे पता था की उसकी हद कहाँ तक है .पर वो परम्पराओं का मात्र मूक समर्थक भी नहीं था ,उसमे बदलाव की बेचैनी और तड़प भी थी .राजेश खन्ना ने फिल्म के परदे पर जिस सहज, सरल और मृदु भारतीय युवा की छवि पेश की ,बाद में अमिताभ बच्चन के "एंग्री यंगमैन "ने उसी का अतिक्रमण किया .
राजेश खन्ना की यादगार फिल्मो की लिस्ट बहुत लम्बी है .उसे यहाँ दुहराने से कोई फायदा भी नहीं .फिलहाल ये वक्त है उस कष्ट से उबरने का जो वो जाते जाते हमें दे गए है .एक कलाकार जीवन भर हमारा मनोरंजन करता है ,पर आखिरी वक्त में तो हमारी आँखे नम कर ही जाता है .
वो हमारे हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे .जो स्टारडम,जो शोहरत राजेश खन्ना के हिस्से आई वो फिर किसी को नहीं मिली . उन्हें देखने के लिए दीवाने दर्शको की भीड़ लग जाती थी .उनकी गाड़ियों पर प्रेम सन्देश लिखे जाते थे .लडकिया उनकी तस्वीर से शादी रचाती थी ....फिल्म उद्योग में ऐसा एखलाक, ऐसी स्वीकार्यता किसी को नहीं मिली..... .वो एक बेहतर कलाकार ही नहीं एक बेहतर इंसान भी थे .
राजेश खन्ना ने फिल्म जगत में तब कदम रखा जब हिंदी सिनेमा की महान तिकड़ी (राज कपूर ,दिलीप कुमार,देव आनंद ) अपने अवसान पर थी .इस तरह इंडस्ट्री में जो एक खालीपन आ गया था ,उसे राजेश खन्ना ने ही भरा .वो मानो इस तिकड़ी के सम्मिलित अवतार थे . इन तीनो कीखूबियाँ उनमे थीं . उनके अभिनय में राज कपूर की सादगी थी ,तो दिलीप साहब की नफासत भीऔर देव आनंद का चुलबुलापन भी .उन्होंने दर्शकों को पूरी खुराक दी .बदले में दर्शकों ने उन्हें भरपूर प्यार से नवाजा .तभी फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें रिकार्ड सफलता मिली .लगातार १५ सुपर डुपर हिट फ़िल्में देना उन्ही के बस का था .१५० से अधिक फिल्मों में अभिनय करने वाले राजेश खन्ना ने २५ सालों तक इंडस्ट्री पर राज किया .उन्होंने साबित किया की वही इस इंडस्ट्री के पहले सुपरस्टार है .
सिनेमा के परदे पर राजेश खन्ना की इमेज एक रोमांटिक नायक की थी .वो एक ऐसे मध्य वर्गीय युवा को चित्रित करते थे जो परम्पराओं से जूझते हुए अपना रास्ता बनाता था .जिसे कभी मान मर्यादा के नाम पर कुर्बानी देनी पड़ती थी तो कभी नियति के निर्णय के आगे विवश हो जाना पड़ता था .जो बेहद रोमांटिक था लेकिन दिलफेंक जरा भी नहीं .उसे पता था की उसकी हद कहाँ तक है .पर वो परम्पराओं का मात्र मूक समर्थक भी नहीं था ,उसमे बदलाव की बेचैनी और तड़प भी थी .राजेश खन्ना ने फिल्म के परदे पर जिस सहज, सरल और मृदु भारतीय युवा की छवि पेश की ,बाद में अमिताभ बच्चन के "एंग्री यंगमैन "ने उसी का अतिक्रमण किया .
राजेश खन्ना की यादगार फिल्मो की लिस्ट बहुत लम्बी है .उसे यहाँ दुहराने से कोई फायदा भी नहीं .फिलहाल ये वक्त है उस कष्ट से उबरने का जो वो जाते जाते हमें दे गए है .एक कलाकार जीवन भर हमारा मनोरंजन करता है ,पर आखिरी वक्त में तो हमारी आँखे नम कर ही जाता है .
रविवार, 15 जुलाई 2012
ओबामा की नेक सलाह
तो आज सबको पता चल ही गया की भारत की अर्थव्यवस्था के विकास में सबसे बड़ा
रोड़ा क्या है .इसका सारा क्रेडिट जाता है अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा
को .इन्होने गहन मंथन के बाद आखिर इस गुत्थी को सुलझा ही दिया .पी टी आई
को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश
की मंजूरी न दे कर भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था की विकास दर को मंद बना
रखा है .विदेशी निवेश (अर्थात अमेरिकी निवेश )को मंजूरी दे कर हमारी सरकार
अर्थव्यवस्था की तीव्र विकास दर का लुत्फ़ तो उठाएगी ही ,साथ ही जो ढेर
सारा रोजगार सृजित होगा वो अलग ....हम सब धन्य हुए जो ओबामा महोदय ने अपना
कीमती समय दे कर भारत जैसे देश के बारे में इतना चिंतन किया .
दूसरे के फटे में टांग अडाना अमेरिका का पुराना शगल रहा है .विश्व का शायद ही कोई देश हो जिसके आतंरिक या वाह्य मामलों में अमेरिका को दिलचस्पी ना हो .और अगर बात भारतीय उप महाद्वीप के देशों की हो तो ये कुछ ज्यादा ही वाचाल हो जाता है.भारत पकिस्तान के बीच तनाव को गुप चुप हवा देने में अमेरिका का हाथ सदा से रहा है ....वैसे ओबामा ने आज ही एक और बयान दिया है कि भारत पकिस्तान के मसले दोनों देशो को आपस में मिल कर सुलझाना चाहिए .
ओबामा ने आज अमेरिकी कूटनीति कि एक नायब मिसाल पेश कि है .अभी कुछ ही दिन पहले टाइम मैगजीन ने भारतीय प्रधानमंत्री की रैंकिंग जारी करते हुए उन्हें एक ख़राब प्रधान मंत्री बताया था .ओबामा का बयान उसकी अगली कड़ी है .पहले वो भारतीय प्रधानमंत्री कोहीनता बोध कराते है ,और अब उससे उबरने का मौका सुझा रहे है ..मनमोहन सिंह एक ख़राब प्रधान मंत्री इसलिए है क्योंकि यहाँ अर्थव्यवस्था सुस्त है ,इसे तेज करने का उपाय ये है कि वो अमेरिकी कंपनियों को भारत के खुदरा क्षेत्र में उतरने दे .ऐसा होने पर .हो सकता है टाइम के किसी अगले अंक में ये छपे कि मनमोहन सिंह सबसे बेहतर प्रधानमंत्री है .ध्यान रहे अमेरिका ने ये दोनों कसरत तब की है जब उसे पता है कि वित्त मंत्रालय इस वक्त मनमोहन के पास है ,और भारत में उनकी छवि आर्थिक सुधारों के जनक की है .भारत में प्राइवेट कंपनियों के लिए रास्ता खोलने वाले वही है .
इसके अलावा भारत -पाक रिश्तों पर टिप्पड़ी दे कर ओबामा अपनी एक तटस्थ छवि भी प्रस्तुत करते है .वो कहते है की भारत ,पाक को अपने रिश्ते कैसे मधुर बनाने है ये बताना अमेरिका का काम नहीं है ....पर भारतीय अर्थव्यवस्था शायद अपवाद है .
ओबामा ने आज एक तीर से कई शिकार किये है ,इससे उनका भी हित सधता है .इस वक्त वो राष्ट्रपति चुनावो की तैयारी में है . इस चुनाव में वे भी एक उम्मीदवार है .उनका ये तीर अमेरिका के बड़े उद्योगपतियों को भी लक्ष्य कर के छोड़ा गया है .ओबामा ये जतलाना चाहते है कि उन्हें इन उद्योगपतियों कि कितनी परवाह है .अगर भारत निवेश के रास्ते खोलता है तो इनकी चांदी हो जाएगी ..आखिर चुनाव में इनके नोट और सपोर्ट की भारी जरूरत जो है उन्हें .
अंत में ओबामा को धन्यवाद करते हुए यही कहना होगा कि हमें अपने आतंरिक मामलों कि समझ उनसे बेहतर है ,और अपनी कठिनाइयों से निपटने के लिए हमें उधार के विचार या सुझाव कि आवश्यकता तो कत्तई नहीं है
.
दूसरे के फटे में टांग अडाना अमेरिका का पुराना शगल रहा है .विश्व का शायद ही कोई देश हो जिसके आतंरिक या वाह्य मामलों में अमेरिका को दिलचस्पी ना हो .और अगर बात भारतीय उप महाद्वीप के देशों की हो तो ये कुछ ज्यादा ही वाचाल हो जाता है.भारत पकिस्तान के बीच तनाव को गुप चुप हवा देने में अमेरिका का हाथ सदा से रहा है ....वैसे ओबामा ने आज ही एक और बयान दिया है कि भारत पकिस्तान के मसले दोनों देशो को आपस में मिल कर सुलझाना चाहिए .
ओबामा ने आज अमेरिकी कूटनीति कि एक नायब मिसाल पेश कि है .अभी कुछ ही दिन पहले टाइम मैगजीन ने भारतीय प्रधानमंत्री की रैंकिंग जारी करते हुए उन्हें एक ख़राब प्रधान मंत्री बताया था .ओबामा का बयान उसकी अगली कड़ी है .पहले वो भारतीय प्रधानमंत्री कोहीनता बोध कराते है ,और अब उससे उबरने का मौका सुझा रहे है ..मनमोहन सिंह एक ख़राब प्रधान मंत्री इसलिए है क्योंकि यहाँ अर्थव्यवस्था सुस्त है ,इसे तेज करने का उपाय ये है कि वो अमेरिकी कंपनियों को भारत के खुदरा क्षेत्र में उतरने दे .ऐसा होने पर .हो सकता है टाइम के किसी अगले अंक में ये छपे कि मनमोहन सिंह सबसे बेहतर प्रधानमंत्री है .ध्यान रहे अमेरिका ने ये दोनों कसरत तब की है जब उसे पता है कि वित्त मंत्रालय इस वक्त मनमोहन के पास है ,और भारत में उनकी छवि आर्थिक सुधारों के जनक की है .भारत में प्राइवेट कंपनियों के लिए रास्ता खोलने वाले वही है .
इसके अलावा भारत -पाक रिश्तों पर टिप्पड़ी दे कर ओबामा अपनी एक तटस्थ छवि भी प्रस्तुत करते है .वो कहते है की भारत ,पाक को अपने रिश्ते कैसे मधुर बनाने है ये बताना अमेरिका का काम नहीं है ....पर भारतीय अर्थव्यवस्था शायद अपवाद है .
ओबामा ने आज एक तीर से कई शिकार किये है ,इससे उनका भी हित सधता है .इस वक्त वो राष्ट्रपति चुनावो की तैयारी में है . इस चुनाव में वे भी एक उम्मीदवार है .उनका ये तीर अमेरिका के बड़े उद्योगपतियों को भी लक्ष्य कर के छोड़ा गया है .ओबामा ये जतलाना चाहते है कि उन्हें इन उद्योगपतियों कि कितनी परवाह है .अगर भारत निवेश के रास्ते खोलता है तो इनकी चांदी हो जाएगी ..आखिर चुनाव में इनके नोट और सपोर्ट की भारी जरूरत जो है उन्हें .
अंत में ओबामा को धन्यवाद करते हुए यही कहना होगा कि हमें अपने आतंरिक मामलों कि समझ उनसे बेहतर है ,और अपनी कठिनाइयों से निपटने के लिए हमें उधार के विचार या सुझाव कि आवश्यकता तो कत्तई नहीं है
.
शुक्रवार, 13 जुलाई 2012
शर्म हमें मगर क्यूँ आती नहीं
आज पूरा मीडिया सराबोर है .तीन- तीन ब्रेकिंग न्यूज़ ,तीनो मसालेदार .एक
न्यूज़ में २० लोग एक लड़की को नंगा करने की कोशिश कर रहे है ,उसका
वीडियोशूट किया गया ,फिर उसे यू-ट्यूब पर अपलोड किया गया ....दूसरी खबर
जिसमे पुलिस थाने में एक दरोगा एक महिला के साथ दुर्वयवहार कर रहा है ,थाने
में तैनात और लोग तमाशबीन की भूमिका में खड़े रहते है ,आखिर ऐसे दुर्लभ
दृश्य किस्मतवालो को ही देखने को मिलते है ..,मामले का खुलासा तो तब होता
है जब वो दिलेर औरत किसी तरह खुद भाग कर बाहर आती है .मीडिया के पहुँचते ही
सारे पुलिसवाले दरोगाजी के बचाव में आ जाते है कि वो मनोरोगी है ..ये
जवाब काबिले गौर है .हमारी आप की हिफाजत करने के लिए सरकार ने ख़ास तौर पे
मनोरोगी थानेदार नियुक्त कर रखे है ...ऐसी सरकार को शत -शत नमन है
......तीसरी खबर ऐसी है जो दुनिया की किसी भी भाषा में शायद बयां नहीं की
जा सकती ....एक नाबालिग लड़की को उसीके परिजनों (भाई और भाभी ) ने गर्त में
धकेल दिया .....कुल मिला कर आज तो इलेक्ट्रानिक मीडिया की चांदी है. टी आर
पी बढ़ाने का सुनहरा मौका?
आइये टेलीविजन से बाहर की दुनिया पर जरा गौर फरमाएं ...ये सब तो होता ही रहता है ..आखिर इतना बड़ा देश है ...थोडा राज काज पर नजर डालें ...इन तीन शर्मनाक हादसों के बाद हमारे महान अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री हमेशा की तरह खामोश है ,विश्व की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक और केंद्र सरकार की आलाकमान श्रीमती सोनिया गाँधी (जो इत्तेफाक से खुद भी एक महिला है ) बिलकुल चुप है ...क्योकि उनकी हिंदी अच्छी नहीं है ,वो तभी बोलती है जब उन्हें कुछ लिख कर दिया जाता है .देश के अगले संभावित राष्ट्रपति अपना समर्थन जुटाने में मशगूल है ,वैसे पिछले दस सालों में वो तभी बोलते थे जब मनमोहन सरकार पर कोई संकट आता था ,यानी ये उनकी दिलचस्पी का विषय नहीं है ...बाबा रामदेव ,अन्ना हजारे ,अरविन्द केजरीवाल केवल कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर गला फाड़ते है ,अगर तीन महिलायों के साथ सरेआम दुर्वयवहार हुआ तो ये बेचारे क्या करे ,ये कोई भ्रष्टाचार का मुद्दा तो है नहीं ...हमारे बुद्धिजीवी भी ऐसी रोजमर्रा की घटनाओ पर कुछ कहने के आदी नहीं है,अगर इमरजेंसी ,भोपाल गैस त्रासदी ,वर्ड ट्रेड सेंटर,ब्रह्मेश्वर दिव्वेदी हत्याकांड या नक्सलियों पर हमला जैसी कोई घटना होती तो ये लोग भी अपनी कीमती राय व्यक्त करते .....हाँ अगर कवि लोग चाहेंगे तो एक आध महीने में एक कविता इस घटना पर जरूर लिख मारेंगे ,पर अभी उन्हें छेड़ने की जरूरत नहीं है
कहने सुनने के तौर पर एक बयान आया है ,पुलिस सरगना (अर्थात डी जी पी) का कि हम देश के हर नागरिक के पीछे पुलिस का आदमी नहीं खड़ा कर सकते ..पर जनाब यहाँ तो मामला थाने में ही रेप की कोशिश का है .इसका क्या जब रक्षक ही भक्षक बन जाये ,तिजोरी ही हार को निगल जाये .तब क्या करे ये मुआ आम आदमी ..किस फ़रिश्ते के सामने लगाये गुहार .या फिर शर्म बेबसी और जलालत से तंग आकर डूब मारे कहीं जा कर .
ये घटनाये दुनिया की तमाम लक- दक पे एक बदनुमा दाग की तरह है .हमारे सभ्य होने पे एक सवालिया निशान लगाती है ये घटनाये .भारतीय संविधान की प्रस्तावना में आये "लोक कल्याण कारी राज्य " पद की एक दुखद पैरोडी है ये घटनाये . आजादी के साठ साल हो जाने के बावजूद आज तक हम महिलायों के लिए एक सुरक्षित कोना नहीं बना पाए .समाज ,क़ानून यहाँ तक कि उसका घर तक सुरक्षित नहीं है उसके लिए .
महिलायों पर हिंसा के न जाने कितने प्रकार है ,ये तो कोई अपराध विज्ञानी ही बेहतर बता सकता है ..पर इन सब में सबसे त्रासद होता है उसके आत्मसम्मान, उसकी इज्जत कि धज्जी उड़ाना.ऐसी घटनाये उसे एक जीवित लाश में बदल कर रख देती है .कोई विरला ही होगा जो इस कदर प्रताड़ित होने के बाद फिर से अपना जीवन सामान्य ढंग से जी सके .
तमाम किताबी सैद्धांतिकी के बावजूद महिलायों को ले कर व्यावहारिक सच बिलकुल उलट है .महिलाओं के बारे में हमारी सोच में कोई मूलभूत परिवर्तन आज तक नहीं हो सका है .वही मध्ययुगीन (या शायद और भी पीछे ?)सोच की गठरी हमारे दिमाग में रखी है .. नई.तकनिकी ने महिलायों के अपमान की कुछ और प्रविधियां विकसित की है .यम यम एस उनमे से एक है .नेट पर आज ऐसे विडियो का अच्छा खासा दर्शक वर्ग है .दुस्साहस या कुछ विचित्र घटनाओ वाले एडल्ट विडियो सभ्य समाज में चटकारे ले कर देखे जाते है .आसाम के गुआहाटी की घटना एक ऐसा ही विडियो तैयार करने वाली विकृत सोच की कोशिश थी .अफ़सोस की उनके मंसूबे पूरे हो गए .
बहरहाल आज की ये तीनों शर्मनाक घटनाये बेहद करुणऔर दारुण है .हर एक संवेदनशील व्यक्ति इन्हें सुन कर बौखला गया है साथ ही निजाम की उदासीनता देख कर वो बेहद हताश भी है ...क्या आपको नहीं लगता की हमारी केंद्र सरकार को आज का दिन "राष्ट्रीय शर्म दिवस" के रूप में घोषित कर देना चाहिए
आइये टेलीविजन से बाहर की दुनिया पर जरा गौर फरमाएं ...ये सब तो होता ही रहता है ..आखिर इतना बड़ा देश है ...थोडा राज काज पर नजर डालें ...इन तीन शर्मनाक हादसों के बाद हमारे महान अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री हमेशा की तरह खामोश है ,विश्व की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक और केंद्र सरकार की आलाकमान श्रीमती सोनिया गाँधी (जो इत्तेफाक से खुद भी एक महिला है ) बिलकुल चुप है ...क्योकि उनकी हिंदी अच्छी नहीं है ,वो तभी बोलती है जब उन्हें कुछ लिख कर दिया जाता है .देश के अगले संभावित राष्ट्रपति अपना समर्थन जुटाने में मशगूल है ,वैसे पिछले दस सालों में वो तभी बोलते थे जब मनमोहन सरकार पर कोई संकट आता था ,यानी ये उनकी दिलचस्पी का विषय नहीं है ...बाबा रामदेव ,अन्ना हजारे ,अरविन्द केजरीवाल केवल कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर गला फाड़ते है ,अगर तीन महिलायों के साथ सरेआम दुर्वयवहार हुआ तो ये बेचारे क्या करे ,ये कोई भ्रष्टाचार का मुद्दा तो है नहीं ...हमारे बुद्धिजीवी भी ऐसी रोजमर्रा की घटनाओ पर कुछ कहने के आदी नहीं है,अगर इमरजेंसी ,भोपाल गैस त्रासदी ,वर्ड ट्रेड सेंटर,ब्रह्मेश्वर दिव्वेदी हत्याकांड या नक्सलियों पर हमला जैसी कोई घटना होती तो ये लोग भी अपनी कीमती राय व्यक्त करते .....हाँ अगर कवि लोग चाहेंगे तो एक आध महीने में एक कविता इस घटना पर जरूर लिख मारेंगे ,पर अभी उन्हें छेड़ने की जरूरत नहीं है
कहने सुनने के तौर पर एक बयान आया है ,पुलिस सरगना (अर्थात डी जी पी) का कि हम देश के हर नागरिक के पीछे पुलिस का आदमी नहीं खड़ा कर सकते ..पर जनाब यहाँ तो मामला थाने में ही रेप की कोशिश का है .इसका क्या जब रक्षक ही भक्षक बन जाये ,तिजोरी ही हार को निगल जाये .तब क्या करे ये मुआ आम आदमी ..किस फ़रिश्ते के सामने लगाये गुहार .या फिर शर्म बेबसी और जलालत से तंग आकर डूब मारे कहीं जा कर .
ये घटनाये दुनिया की तमाम लक- दक पे एक बदनुमा दाग की तरह है .हमारे सभ्य होने पे एक सवालिया निशान लगाती है ये घटनाये .भारतीय संविधान की प्रस्तावना में आये "लोक कल्याण कारी राज्य " पद की एक दुखद पैरोडी है ये घटनाये . आजादी के साठ साल हो जाने के बावजूद आज तक हम महिलायों के लिए एक सुरक्षित कोना नहीं बना पाए .समाज ,क़ानून यहाँ तक कि उसका घर तक सुरक्षित नहीं है उसके लिए .
महिलायों पर हिंसा के न जाने कितने प्रकार है ,ये तो कोई अपराध विज्ञानी ही बेहतर बता सकता है ..पर इन सब में सबसे त्रासद होता है उसके आत्मसम्मान, उसकी इज्जत कि धज्जी उड़ाना.ऐसी घटनाये उसे एक जीवित लाश में बदल कर रख देती है .कोई विरला ही होगा जो इस कदर प्रताड़ित होने के बाद फिर से अपना जीवन सामान्य ढंग से जी सके .
तमाम किताबी सैद्धांतिकी के बावजूद महिलायों को ले कर व्यावहारिक सच बिलकुल उलट है .महिलाओं के बारे में हमारी सोच में कोई मूलभूत परिवर्तन आज तक नहीं हो सका है .वही मध्ययुगीन (या शायद और भी पीछे ?)सोच की गठरी हमारे दिमाग में रखी है .. नई.तकनिकी ने महिलायों के अपमान की कुछ और प्रविधियां विकसित की है .यम यम एस उनमे से एक है .नेट पर आज ऐसे विडियो का अच्छा खासा दर्शक वर्ग है .दुस्साहस या कुछ विचित्र घटनाओ वाले एडल्ट विडियो सभ्य समाज में चटकारे ले कर देखे जाते है .आसाम के गुआहाटी की घटना एक ऐसा ही विडियो तैयार करने वाली विकृत सोच की कोशिश थी .अफ़सोस की उनके मंसूबे पूरे हो गए .
बहरहाल आज की ये तीनों शर्मनाक घटनाये बेहद करुणऔर दारुण है .हर एक संवेदनशील व्यक्ति इन्हें सुन कर बौखला गया है साथ ही निजाम की उदासीनता देख कर वो बेहद हताश भी है ...क्या आपको नहीं लगता की हमारी केंद्र सरकार को आज का दिन "राष्ट्रीय शर्म दिवस" के रूप में घोषित कर देना चाहिए
गुरुवार, 12 जुलाई 2012
रुस्तम-ए -हिन्द को आखिरी सलाम
आपको ७० के दशक के कई ऐसे फ़िल्मी दृश्य याद होंगे ,जिसमे हीरोइन को कुछ
गुंडों ने घेर लिया हो या फिल्म का नायक किसी संकट में हो .तभी स्क्रीन पर ६
फुट २ इंच का एक पहलवानी शख्स प्रकट होता है जो देखते ही देखते सारे
गुंडों को अपने देशी अंदाज से धूल चटा देता है .उधर परदे पर एक्शन सीन चल
रहा होता है और इधर आपकी नशें फड़क रही होती है .
या फिर भारतीय टेलीविजन इतिहास के पहले मेगा सीरिअल "रामायण" के हनुमान को कोई कैसे भुला सकता है .जिसने हर घर और हर मन में अपनी पैठ बना ली थी .
हमारे मष्तिस्क में हनुमान की एक स्थायी छवि अंकित करने वाले कलाकार दीदार सिंह रंधावा उर्फ़ दारा सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे ......
अपने ६० साल के एक्टिंग करियर में दारा सिंह ने फिल्म और टेलीविजन के कई यादगार किरदार निभाए .सन १९६२ में कुश्ती पर बनी फिल्म "संगदिल"से एक लोकप्रिय अभिनेता के जिस सफ़र की शुरुआत हुई वो २००७ में बनी "जब वी मेट " तक जारी रहा. दारा सिंह हिंदी सिनेमा के सम्भव्तः पहले ऐसे सहकलाकार थे जिनके हर सीन पर हीरो से अधिक तालियाँ और सीटियाँ बजती थी .उनकी संतुलित अदाकारी और संवाद अदायगी हिंदी सिनेमा के दर्शक कभी नहीं भूल पाएंगे .अभिनेता प्रदीप की तरह दारा सिंह भी धार्मिक फिल्मों के एक अनिवार्य कलाकार बन गए थे .
१९३८ में पंजाब के अमृतसर में जन्मे दारा सिंह ने अपने करियर की शुरुवात एक पहलवान के रूप में की ,जिसमे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति मिली .उन्होंने मलेशिया और भारत की तरफ से "विश्व रेस्ट्लर चैम्पियनशिप" का खिताब भी जीता .स्वदेश वापसी के बाद वो हिंदी और पंजाबी सिनेमा में सक्रिय हो गए .एक अभिनेता और निर्माता के रूप में उन्होंने पिछले ६० सालो तक सिनेमा को अपने महत्वपूर्ण योगदान से नवाजा .
अपने निजी जीवन में भी दारा सिंह ने कई विविघतापूर्ण भूमिकाओं का सफलता पूर्वक निर्वहन किया .एक पहलवान से लेकर एक अभिनेता ,निर्माता और एक राजनेता के रूप में उन्होंने अपनी लोकप्रियता में चार चाँद लगाये .उन्होंने एक भरपूर और कामयाब जिंदगी जी .वो उम्र के आखिरी पड़ाव तक सक्रिय रहे ,उन्होंने अपने प्रशंसकों को कभी ये लगने ही नहीं दिया कि हर शख्स कि जिंदगी में एक ऐसा वक्त भी आता है जब उसे सबको अलविदा कहना पड़ता है .
दारा सिंह की कमी हर उस क्षेत्र में अखरेगी जहाँ उन्होंने सफलता और कामयाबी के झंडे गाड़े ,पर फिल्मों में निभाए गए उनके अमर किरदार कभी भी हमारे दिल में उनके प्यार और सम्मान को कम नहीं होने देंगे.
या फिर भारतीय टेलीविजन इतिहास के पहले मेगा सीरिअल "रामायण" के हनुमान को कोई कैसे भुला सकता है .जिसने हर घर और हर मन में अपनी पैठ बना ली थी .
हमारे मष्तिस्क में हनुमान की एक स्थायी छवि अंकित करने वाले कलाकार दीदार सिंह रंधावा उर्फ़ दारा सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे ......
अपने ६० साल के एक्टिंग करियर में दारा सिंह ने फिल्म और टेलीविजन के कई यादगार किरदार निभाए .सन १९६२ में कुश्ती पर बनी फिल्म "संगदिल"से एक लोकप्रिय अभिनेता के जिस सफ़र की शुरुआत हुई वो २००७ में बनी "जब वी मेट " तक जारी रहा. दारा सिंह हिंदी सिनेमा के सम्भव्तः पहले ऐसे सहकलाकार थे जिनके हर सीन पर हीरो से अधिक तालियाँ और सीटियाँ बजती थी .उनकी संतुलित अदाकारी और संवाद अदायगी हिंदी सिनेमा के दर्शक कभी नहीं भूल पाएंगे .अभिनेता प्रदीप की तरह दारा सिंह भी धार्मिक फिल्मों के एक अनिवार्य कलाकार बन गए थे .
१९३८ में पंजाब के अमृतसर में जन्मे दारा सिंह ने अपने करियर की शुरुवात एक पहलवान के रूप में की ,जिसमे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति मिली .उन्होंने मलेशिया और भारत की तरफ से "विश्व रेस्ट्लर चैम्पियनशिप" का खिताब भी जीता .स्वदेश वापसी के बाद वो हिंदी और पंजाबी सिनेमा में सक्रिय हो गए .एक अभिनेता और निर्माता के रूप में उन्होंने पिछले ६० सालो तक सिनेमा को अपने महत्वपूर्ण योगदान से नवाजा .
अपने निजी जीवन में भी दारा सिंह ने कई विविघतापूर्ण भूमिकाओं का सफलता पूर्वक निर्वहन किया .एक पहलवान से लेकर एक अभिनेता ,निर्माता और एक राजनेता के रूप में उन्होंने अपनी लोकप्रियता में चार चाँद लगाये .उन्होंने एक भरपूर और कामयाब जिंदगी जी .वो उम्र के आखिरी पड़ाव तक सक्रिय रहे ,उन्होंने अपने प्रशंसकों को कभी ये लगने ही नहीं दिया कि हर शख्स कि जिंदगी में एक ऐसा वक्त भी आता है जब उसे सबको अलविदा कहना पड़ता है .
दारा सिंह की कमी हर उस क्षेत्र में अखरेगी जहाँ उन्होंने सफलता और कामयाबी के झंडे गाड़े ,पर फिल्मों में निभाए गए उनके अमर किरदार कभी भी हमारे दिल में उनके प्यार और सम्मान को कम नहीं होने देंगे.
मंगलवार, 10 जुलाई 2012
निकाय चुनाव नतीजों का अर्थात
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव के परिणाम जरा भी चौंकाने वाले नहीं है .ऐसा एक सामान्य अनुमान तो था ही कि अपनी आर्थिक नीतियों के चलते कांग्रेस को इन चुनावों में भी मुँह की खानी पड़ेगी .विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को यू पी में ये दूसरा झटका है .ये परिणाम आगामी लोकसभा चुनावों में जनता के रुझान का एक खाका तो खींचते ही है .ये परिणाम यू पी में लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा दोनों तय करेंगे .
इन चुनावों में कांग्रेस अपना खाता तक नही खोल पाई .केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए इससे शर्मनाक बात कोई दूसरी नहीं हो सकती .यू पी ए का दूसरा कार्यकाल घोर निराशाजनक और विडम्बनापूर्ण दौर से गुजर रहा है .आर्थिक मोर्चे पर ये सरकार बुरी तरह से फ्लाप हो चुकी है ,जबकि अर्थशास्त्र की गहन समझ रखने वाले शीर्ष राजनेता इसी दल में है .
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के ट्रम्पकार्ड राहुल गाँधी पहले ही अपना अर्थ खो चुके है ..लगता है कांग्रेस अभी इस सदमे से उबर नहीं पाई है .वह अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने के बजाय अभी उसी हार का शोक मना रही है .विधानसभा चुनावों में हार का ठीकरा पार्टी के संगठनात्मक ढांचे पर टूटा था. कांग्रेस के परंपरागत चाटुकार नेताओं ने राहुल गांधी का भरपूर बचाव किया था .हैरानी की बात है की इस स्वीकारोक्ति के बाद भी कांग्रेस जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ नहीं कर सकी .
इन परिणामों ने भाजपा को थोड़ी रहत जरूर दी है महापौर के १२ में से १० सीटें उसके खाते में आई है .पर छोटे शहरों में भाजपा का प्रदर्शन भी कुछ ख़ास नहीं रहा .
ये परिणाम थोड़े और दिलचस्प हो सकते थे अगर सपा और बसपा भी खुल कर मैदान में आते .दोनों पार्टियों के पीछे हटने का कारण भी हालिया विधान सभा चुनाव ही है .जहाँ अपनी करारी हार से सहमी बसपा कोई और सदमा झेलने की स्थिति में नहीं थी ,वही सपा भी अपनी जीत की खुशफहमी को गलत साबित नहीं होने देना चाहती थी .
दरअसल यहाँ असली इम्तेहान तो भाजपा और कांग्रेस का ही था ,जिसमे कांग्रेस फेल हो गयी है और भाजपा को पासिंग मार्क मिले है .
इन चुनावों में कांग्रेस अपना खाता तक नही खोल पाई .केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए इससे शर्मनाक बात कोई दूसरी नहीं हो सकती .यू पी ए का दूसरा कार्यकाल घोर निराशाजनक और विडम्बनापूर्ण दौर से गुजर रहा है .आर्थिक मोर्चे पर ये सरकार बुरी तरह से फ्लाप हो चुकी है ,जबकि अर्थशास्त्र की गहन समझ रखने वाले शीर्ष राजनेता इसी दल में है .
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के ट्रम्पकार्ड राहुल गाँधी पहले ही अपना अर्थ खो चुके है ..लगता है कांग्रेस अभी इस सदमे से उबर नहीं पाई है .वह अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने के बजाय अभी उसी हार का शोक मना रही है .विधानसभा चुनावों में हार का ठीकरा पार्टी के संगठनात्मक ढांचे पर टूटा था. कांग्रेस के परंपरागत चाटुकार नेताओं ने राहुल गांधी का भरपूर बचाव किया था .हैरानी की बात है की इस स्वीकारोक्ति के बाद भी कांग्रेस जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ नहीं कर सकी .
इन परिणामों ने भाजपा को थोड़ी रहत जरूर दी है महापौर के १२ में से १० सीटें उसके खाते में आई है .पर छोटे शहरों में भाजपा का प्रदर्शन भी कुछ ख़ास नहीं रहा .
ये परिणाम थोड़े और दिलचस्प हो सकते थे अगर सपा और बसपा भी खुल कर मैदान में आते .दोनों पार्टियों के पीछे हटने का कारण भी हालिया विधान सभा चुनाव ही है .जहाँ अपनी करारी हार से सहमी बसपा कोई और सदमा झेलने की स्थिति में नहीं थी ,वही सपा भी अपनी जीत की खुशफहमी को गलत साबित नहीं होने देना चाहती थी .
दरअसल यहाँ असली इम्तेहान तो भाजपा और कांग्रेस का ही था ,जिसमे कांग्रेस फेल हो गयी है और भाजपा को पासिंग मार्क मिले है .
गुरुवार, 5 जुलाई 2012
पहले हाँ फिर ना
अखिलेश सरकार ने जैसे तैसे अपने १०० दिन पूरे कर लिए है .कुल मिला कर सरकार
का प्रदर्शन औसत ही कहा जायेगा .चुनाव से पहले उनकी पार्टी ने जनता को
विकास और बदलाव के एक से बढ़ कर एक सुहाने सपने दिखाए थे .जनता ने उन्हें
पूर्ण बहुमत देकर एक सुरक्षित राजनीतिक पारी शुरू करने का अवसर भी दिया
.पर सरकार अभी तक जनता के अरमानो के अनुरूप प्रदर्शन नहीं ही कर पाई है
.अखिलेश इस वक्त संभवतः देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री है .उनके सत्ता
सम्हालते ही ये उम्मीद मजबूत हो गयी थी कि शायद अब उत्तर प्रदेश विकास की
पटरी पर आ सके .अखिलेश की युवा सोच ,उर्जा और नयी
दृष्टि से शायद प्रदेश की तस्वीर में कुछ चटख रंग भर जाये .पर अखिलेश
सरकार ऐसा कुछ करती दिखाई नहीं दे रही है .अभी तक उन्होंने ऐसा कोई भी
संकेत नहीं दिया है जो ये साबित कर सके कि वो जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप शासन चला रहे हो.
अभी हाल की कुछ घटनाओ ने अखिलेश सरकार की एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की है .अखिलेश सरकार में इच्छा शक्ति का अभाव साफ़ नजर आने लगा है .निर्णय लेने में अतिउत्साह, अदूरदर्शिता,इनकी पहचान बनती जा रही है .सरकार ने बिना सोचे समझे ऐसे दो फैसले जनता पर थोपने की कोशिश की जिन्हें विरोधों की वजह से २४ घंटे के भीतर ही वापस लेना. पड़ा सरकार ने बिजली कटौती को लेकर जो फरमान जारी किया था उसकी अगले २४ घाटों में ही हवा निकल गयी .येही हश्र उस फैसले का भी हुआ जिसमे विधायको को २० लाख तक की कर खरीदने का वरदान दिया गया था, रातो रात अखिलेश को ये फैसला भी वापस लेना पड़ा. इन दो घटनाओ ने अखिलेश को एक हास्यास्पद स्थिति में पंहुचा दिया है .
अखिलेश सरकार की जो एक सबसे बड़ी कमी उभर कर सामने आई है वो है परस्पर संवाद का अभाव .अखिलेश सरकार में कई ऐसे अनुभवी और दिग्गज नेता है जो काफी वर्षों से उनकी पार्टी और प्रदेश की राजनीति में सक्रिय है .उनके पिता खुद राजनीति के एक मंजे हुए खिलाड़ी है .अखिलेश को इन सभी के अनुभवों का लाभ उठाना चाहिए पर इन दो घटनाओं के अंजाम ने इतना तो खुलासा कर ही दिया की अखिलेश कोई फरमान जारी करने से पूर्व अपने मंत्रिमंडल से शायद ही विचारविमर्श करते हो.वो संभवतः वाह वाही लूटने के चक्कर में खुद ही ये दूर की कोड़ियाँ खोज कर लाते है और फिर जनता के सामने उनका मुजाहिरा कर देते है .इसमें हैरत नहीं की अखिलेश के इन दोनों बोल्ड फैसलों के प्रति विरोध के स्वर उनके विधायको में भी सुनायी दिए .यदि सत्ता सञ्चालन के लिए अखिलेश एक लोकतान्त्रिक पद्धति का अनुसरण करके ,पहले से फुलप्रूफ फैसले लेते तो शायद ये नौबत न आती .
ये सच है की किसी सरकार की विशेष पहचान दो वजहों से बनती है ,एक तो उसके द्वारा लिए गए बोल्ड (या कहे ताजा)फैसले और दूसरा उसके द्वारा किये गए विकास कार्य .अखिलेश सरकार पर जन आकांक्षाओं का भा री दबाव है. वो जल्द ही अपनी सरकार को एक लोकप्रिय सरकार में बदलते हुए देखना चाहते है .पर ये सबकुछ बिना किसी हड़बड़ी या उतावलेपन के होना चाहिए .सरकार का हर फैसला पूरी गंभीरता और तैयारी के साथ होना चाहिए .
अखिलेश सरकार को अभी काफी लम्बा सफ़र तय करना है .तो ये आवश्यक है की वो फूंक फूंक कर कदम रखे ताकि जनता एक युवा मुख्यमंत्री के रूप में लम्बे समय तक उन्हें याद रख सके.
अभी हाल की कुछ घटनाओ ने अखिलेश सरकार की एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की है .अखिलेश सरकार में इच्छा शक्ति का अभाव साफ़ नजर आने लगा है .निर्णय लेने में अतिउत्साह, अदूरदर्शिता,इनकी पहचान बनती जा रही है .सरकार ने बिना सोचे समझे ऐसे दो फैसले जनता पर थोपने की कोशिश की जिन्हें विरोधों की वजह से २४ घंटे के भीतर ही वापस लेना. पड़ा सरकार ने बिजली कटौती को लेकर जो फरमान जारी किया था उसकी अगले २४ घाटों में ही हवा निकल गयी .येही हश्र उस फैसले का भी हुआ जिसमे विधायको को २० लाख तक की कर खरीदने का वरदान दिया गया था, रातो रात अखिलेश को ये फैसला भी वापस लेना पड़ा. इन दो घटनाओ ने अखिलेश को एक हास्यास्पद स्थिति में पंहुचा दिया है .
अखिलेश सरकार की जो एक सबसे बड़ी कमी उभर कर सामने आई है वो है परस्पर संवाद का अभाव .अखिलेश सरकार में कई ऐसे अनुभवी और दिग्गज नेता है जो काफी वर्षों से उनकी पार्टी और प्रदेश की राजनीति में सक्रिय है .उनके पिता खुद राजनीति के एक मंजे हुए खिलाड़ी है .अखिलेश को इन सभी के अनुभवों का लाभ उठाना चाहिए पर इन दो घटनाओं के अंजाम ने इतना तो खुलासा कर ही दिया की अखिलेश कोई फरमान जारी करने से पूर्व अपने मंत्रिमंडल से शायद ही विचारविमर्श करते हो.वो संभवतः वाह वाही लूटने के चक्कर में खुद ही ये दूर की कोड़ियाँ खोज कर लाते है और फिर जनता के सामने उनका मुजाहिरा कर देते है .इसमें हैरत नहीं की अखिलेश के इन दोनों बोल्ड फैसलों के प्रति विरोध के स्वर उनके विधायको में भी सुनायी दिए .यदि सत्ता सञ्चालन के लिए अखिलेश एक लोकतान्त्रिक पद्धति का अनुसरण करके ,पहले से फुलप्रूफ फैसले लेते तो शायद ये नौबत न आती .
ये सच है की किसी सरकार की विशेष पहचान दो वजहों से बनती है ,एक तो उसके द्वारा लिए गए बोल्ड (या कहे ताजा)फैसले और दूसरा उसके द्वारा किये गए विकास कार्य .अखिलेश सरकार पर जन आकांक्षाओं का भा री दबाव है. वो जल्द ही अपनी सरकार को एक लोकप्रिय सरकार में बदलते हुए देखना चाहते है .पर ये सबकुछ बिना किसी हड़बड़ी या उतावलेपन के होना चाहिए .सरकार का हर फैसला पूरी गंभीरता और तैयारी के साथ होना चाहिए .
अखिलेश सरकार को अभी काफी लम्बा सफ़र तय करना है .तो ये आवश्यक है की वो फूंक फूंक कर कदम रखे ताकि जनता एक युवा मुख्यमंत्री के रूप में लम्बे समय तक उन्हें याद रख सके.
बादलों की आँख मिचौली
आषाढ़ बीत गया ,सावन में भी दो तीन दिन निकल गए ,पर धरती अभी प्यासी की
प्यासी ही है .तालाब पोखर सूख गए है .नदियों का हाल भी बुरा है .पुश पक्षी,
जड़ चेतन सब कुम्हला गए है .सब आसमान की तरफ मानो टकटकी बांध कर देख रहे हो.
प्रार्थना कर रहे हो और ये कह रहे हो की अब तो इंतिजार की इन्तिहाँ हो
गयी है .
पानी की चाह सबसे आदिम चाह है .मनुष्य के इतिहास का कोई भी दिन पानी के बगैर नहीं बीता होगा .हर सुख हर दुःख का साक्षी रहा है पानी .इस तरह पानी हमारा सबसे प्राचीन दोस्त है .........वही सृष्टि का प्राण है .जीवन तत्व है .जीने की आस है .
आंकड़े इस वक्त चाहे जो कह रहे हो पर हालात अब नाजुक मोड़ पर पहुँच गए है .बारिश की आस अब हमें रुलाने की स्थिति में ले जा रही है .समूचा उत्तरभारत एक अघोषित सूखे की चपेट में है .धान की अभी तक बुवाई तक नहीं हो सकी है .खरीफ की अन्य फसले भी बर्बादी की कगार पर है .देश का लगभग ४५% भूभाग ऐसा है जहाँ अभी पानी की एक बूँद भी नहीं गिरी .जमीन में दरारें पड़ने को है .किसानो की आँखों में अभी भी अनिश्चतता के बादल मडरा रहे है .
भारत में ६०-६५% आबादी अभी भी कृषि पर निर्भर करती है .ये दीगर बात है के कुछ चेत्रो में ये निर्भरता कम हुयी है ,पर बहुसंख्यक किसान अभी भी मानसून की बाट जोहते है .खेती की पैदावार काफी कुछ मानसून के समय से आने पर निर्भर करती है .देरी से या कम मात्रा में होने वाली बारिश खेती के लिए तमाम संकट खड़े कर देती है .जाहिर है की ऐसे में पैदावार घटती है जिसका सीधा असर अर्थवयवस्था पर पड़ता है .सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ता है.
अभी कृषि मंत्री ने एक बयां जारी किया है की देश में सूखे की स्थिति भले ही हो पर इससे निपटने के लिए हमारे पास अनाज के पर्याप्त भण्डार है .ये एक तरह से जले पर नमक छिड़कने जैसा है .सरकारी भण्डार गृहों में अनाज की जो दुर्दशा है ,वो किसी से छुपा नहीं है .भंडार गृहों में जितना अनाज रख रखाव की अव्यवस्था के कारण बर्बाद हो जाता है ,अगर वही सार्वजानिक वितरण प्रणाली के तहत आम लोगो तक आसानी से पहुँच जाये तो शायद आम आदमी में भोजन को ले कर इतनी असुरक्षा का भाव न रहे .
बहर हाल आम आदमी इस वक्त दोहरी मार झेल रहा है -एक तो बेतहाशा बढ़ रही महंगाई और दूसरे मानसून की बेरुखी . .......उधर हमारी सरकार के करता धर्ता राष्ट्रपति चुनाव में व्यस्त है या फिर नक्सलिओं के नाम पर मासूम आदिवासियों की हत्या करवाने में .
पानी की चाह सबसे आदिम चाह है .मनुष्य के इतिहास का कोई भी दिन पानी के बगैर नहीं बीता होगा .हर सुख हर दुःख का साक्षी रहा है पानी .इस तरह पानी हमारा सबसे प्राचीन दोस्त है .........वही सृष्टि का प्राण है .जीवन तत्व है .जीने की आस है .
आंकड़े इस वक्त चाहे जो कह रहे हो पर हालात अब नाजुक मोड़ पर पहुँच गए है .बारिश की आस अब हमें रुलाने की स्थिति में ले जा रही है .समूचा उत्तरभारत एक अघोषित सूखे की चपेट में है .धान की अभी तक बुवाई तक नहीं हो सकी है .खरीफ की अन्य फसले भी बर्बादी की कगार पर है .देश का लगभग ४५% भूभाग ऐसा है जहाँ अभी पानी की एक बूँद भी नहीं गिरी .जमीन में दरारें पड़ने को है .किसानो की आँखों में अभी भी अनिश्चतता के बादल मडरा रहे है .
भारत में ६०-६५% आबादी अभी भी कृषि पर निर्भर करती है .ये दीगर बात है के कुछ चेत्रो में ये निर्भरता कम हुयी है ,पर बहुसंख्यक किसान अभी भी मानसून की बाट जोहते है .खेती की पैदावार काफी कुछ मानसून के समय से आने पर निर्भर करती है .देरी से या कम मात्रा में होने वाली बारिश खेती के लिए तमाम संकट खड़े कर देती है .जाहिर है की ऐसे में पैदावार घटती है जिसका सीधा असर अर्थवयवस्था पर पड़ता है .सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ता है.
अभी कृषि मंत्री ने एक बयां जारी किया है की देश में सूखे की स्थिति भले ही हो पर इससे निपटने के लिए हमारे पास अनाज के पर्याप्त भण्डार है .ये एक तरह से जले पर नमक छिड़कने जैसा है .सरकारी भण्डार गृहों में अनाज की जो दुर्दशा है ,वो किसी से छुपा नहीं है .भंडार गृहों में जितना अनाज रख रखाव की अव्यवस्था के कारण बर्बाद हो जाता है ,अगर वही सार्वजानिक वितरण प्रणाली के तहत आम लोगो तक आसानी से पहुँच जाये तो शायद आम आदमी में भोजन को ले कर इतनी असुरक्षा का भाव न रहे .
बहर हाल आम आदमी इस वक्त दोहरी मार झेल रहा है -एक तो बेतहाशा बढ़ रही महंगाई और दूसरे मानसून की बेरुखी . .......उधर हमारी सरकार के करता धर्ता राष्ट्रपति चुनाव में व्यस्त है या फिर नक्सलिओं के नाम पर मासूम आदिवासियों की हत्या करवाने में .
रविवार, 1 जुलाई 2012
चिकित्सकों के बंधे हाथ
अभी हाईकोर्ट का एक फैसला आया है जिसमे ये कहा गया है की आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक डॉक्टर एलोपैथ की दवाएं अपने मरीजो को नहीं लिख सकेंगे .ये निर्णय तकनिकी रूप से बिलकुल सही है ,पर इसके कुछ दूरगामी दुष्परिणाम भी हो सकते है .भारत जैसे देश में जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ बदहाली की स्थिति में है ,वहाँ ऐसे आदेश जनहित में तो नहीं ही कहे जा सकते .
भारत में ऐसे इलाकों की कमी नहीं है ,जो बुनियादी नागरिक सुविधाओं से अभी भी वंचित है .बीमारू राज्यों की स्थिति तो और भी ख़राब है .पिछली कुछ पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार के सतत प्रयास के चलते शिक्षा के हालात जरूर सुधारें है पर स्वास्थ्य सुविधाओ की उपलब्धता बहुत कम है .कई इलाकों में तो मामूली बुखार होने पर एक पैरासिटामाल की टैबलेट मिलने की सम्भावना नहीं होती है .किसी गंभीर बीमारी की स्थिति में मीलों पैदल जाने पर सरकारी अस्पताल के दर्शन होते है .इसके बाद भी ये जरूरी नहीं की वहां डाक्टर भी मौजूद हो ,और जरूरी चिकत्सकीय सुविधाएँ भी .
ऐसे हालत में उस व्यक्ति की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है जो एक पिछड़े इलाके के मरीज को प्राथमिक चिकित्सकीय सुविधा मुहैया कराता है भले ही वो कम पढ़ लिखा या अप्रशिक्षित ही क्यों न हो .अभी कुछ दिनों पहले ये खबर आई थी की भारत के पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रो में ,जहाँ पर्याप्त सुविधाएँ नहीं है ,ऐसे झोलाछाप या अप्रशिक्षित लोगो को कुछ प्रशिक्षण दे कर मेडिकल प्रेक्टिस का लाइसेंस दे दिया जाये .अगर ऐसा हो पाये तो हालत जरूर थोड़े बेहतर हो सकेंगे .
हमारे देश में एलोपैथ डाक्टरों की संख्या और एलोपैथ दवाओं की उपलब्धता में भारी अंतर है .डाक्टर जहाँ बेहद कम है वही दवाएँ बहुत अधिक मात्रा में.होम्योपैथ और आयुर्वेदिक दवाओं की उपलब्धता तो बड़े बड़े महानगरों तक में बेहद सीमित है .ऐसे में अन्य डाक्टरों की यह मजबूरी बन जाती है की वो अपने मरीजों को एलोपैथ की दवाए ही लेने की सलाह दे .हमारे आसपास ऐसे कई डाक्टर है जिनकी पढाई होम्योपैथिक या आयुर्वेदिक पद्धति की है पर उनकी दवाएँ एलोपैथिक होती है . इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए जादा अच्छा तो ये होता की इन डाक्टरों के अनुभव और ज्ञान के आधार पर इन्हें एक विशेष प्रकार का लाइसेंस जारी किया जाये ,जिससे दूर दराज के ग्रामीण इलाकों की जनता को जीवनरक्षक सेवाएँ मिलती रहे .
जिस तरह सर्वशिक्षा अभियान में अप्रशिक्षित अध्यापको की नियुक्ति करके साक्षरता के आंकड़े में काफी हद तक सुधार किया जा सका ,उसी तरह देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए ये आवश्यक है की इस सेवा से जुड़े अप्रशिक्षित लोगो को जरूरी प्रशिक्षण दे कर उन्हें एक नियमबद्ध लाइसेंस जारी कर दिया जाए .इस तरह वो सरकारी नियम क़ानून के दायरे में भी रहेंगे और नागरिकों के लिए हर जगह प्राथमिक चिकित्सा की सुविधाएँ भी उपलब्ध रहेंगी .
भारत में ऐसे इलाकों की कमी नहीं है ,जो बुनियादी नागरिक सुविधाओं से अभी भी वंचित है .बीमारू राज्यों की स्थिति तो और भी ख़राब है .पिछली कुछ पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार के सतत प्रयास के चलते शिक्षा के हालात जरूर सुधारें है पर स्वास्थ्य सुविधाओ की उपलब्धता बहुत कम है .कई इलाकों में तो मामूली बुखार होने पर एक पैरासिटामाल की टैबलेट मिलने की सम्भावना नहीं होती है .किसी गंभीर बीमारी की स्थिति में मीलों पैदल जाने पर सरकारी अस्पताल के दर्शन होते है .इसके बाद भी ये जरूरी नहीं की वहां डाक्टर भी मौजूद हो ,और जरूरी चिकत्सकीय सुविधाएँ भी .
ऐसे हालत में उस व्यक्ति की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है जो एक पिछड़े इलाके के मरीज को प्राथमिक चिकित्सकीय सुविधा मुहैया कराता है भले ही वो कम पढ़ लिखा या अप्रशिक्षित ही क्यों न हो .अभी कुछ दिनों पहले ये खबर आई थी की भारत के पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रो में ,जहाँ पर्याप्त सुविधाएँ नहीं है ,ऐसे झोलाछाप या अप्रशिक्षित लोगो को कुछ प्रशिक्षण दे कर मेडिकल प्रेक्टिस का लाइसेंस दे दिया जाये .अगर ऐसा हो पाये तो हालत जरूर थोड़े बेहतर हो सकेंगे .
हमारे देश में एलोपैथ डाक्टरों की संख्या और एलोपैथ दवाओं की उपलब्धता में भारी अंतर है .डाक्टर जहाँ बेहद कम है वही दवाएँ बहुत अधिक मात्रा में.होम्योपैथ और आयुर्वेदिक दवाओं की उपलब्धता तो बड़े बड़े महानगरों तक में बेहद सीमित है .ऐसे में अन्य डाक्टरों की यह मजबूरी बन जाती है की वो अपने मरीजों को एलोपैथ की दवाए ही लेने की सलाह दे .हमारे आसपास ऐसे कई डाक्टर है जिनकी पढाई होम्योपैथिक या आयुर्वेदिक पद्धति की है पर उनकी दवाएँ एलोपैथिक होती है . इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए जादा अच्छा तो ये होता की इन डाक्टरों के अनुभव और ज्ञान के आधार पर इन्हें एक विशेष प्रकार का लाइसेंस जारी किया जाये ,जिससे दूर दराज के ग्रामीण इलाकों की जनता को जीवनरक्षक सेवाएँ मिलती रहे .
जिस तरह सर्वशिक्षा अभियान में अप्रशिक्षित अध्यापको की नियुक्ति करके साक्षरता के आंकड़े में काफी हद तक सुधार किया जा सका ,उसी तरह देश में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए ये आवश्यक है की इस सेवा से जुड़े अप्रशिक्षित लोगो को जरूरी प्रशिक्षण दे कर उन्हें एक नियमबद्ध लाइसेंस जारी कर दिया जाए .इस तरह वो सरकारी नियम क़ानून के दायरे में भी रहेंगे और नागरिकों के लिए हर जगह प्राथमिक चिकित्सा की सुविधाएँ भी उपलब्ध रहेंगी .
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