आज के समय में सबसे मुश्किल है फुर्सत के पल पाना। हम सब कुछ खरीद सकते हैं फुर्सत के पलों के सिवा।बहुत सी चीजें हैं जिन्होंने इन पलों को हम से छीन लिया है
। अड्डेबाजी जैसे शब्द हमारे जीवन से दूर होते जा रहें हैं चौपाल जैसे बैठके अब शायद ही कही होती हो .पर कहना गलत होगा की ये सारी चीजें पूरी तरह से विलुप्त हो गयी है बल्कि ये किसी अन्य रूप में हमारे बीच है .हमारे फुर्सत के पल अब यही बीतते है .अड्डेबाजी की सारी खुराक हमें यहीं से मिलती है .गप्पबाजी ,मस्ती ,टीका टिप्पड़ी ,सब तो होता है .रास्ट्रीय,अंतररास्ट्रीय मुद्दे .फिल्म .खेल . राजनीति .साहित्य ,समाज ,रोजगार .पर्यावरण सब की खबर यहाँ ली जाती है .
पर आज के दौर में होने वाली इस बैठकी का सबसे खास लक्षण है सदस्यों की आभासी उपस्थिति .साडी क्रियाएँ ,विमर्श .चुहल सब एक आभासी दुनिया में घटित होती है .अन्य विशेषताओं में हम इसकी अतिप्रभओशीलता और बड़े समूह की भागीदारी .इस गप्पबाजी में बड़े समूह की उपस्थिति ही इसकी अति प्रभावशीलता का कारण है . कई उदाहरण हम अपने वास्तविक जीवन में देखते रहते है .कई सामजिक राजनीतिक आन्दोलन इसे अड्डेबाजी के बलबूते पर परवान चढ़े .अरब की क्रांति हो ,भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने देश की अंगड़ाई हो या अब निर्मल बाबा को ले कर हो रही खुसुर फुसुर ये सब हमारे आद्देबजो के बल बूते पर ही तो हो सका है .जिनका न तो कोई चेहरा है ना ही नाम ,पर ये वो है जो किसी आन्दोलन को दिन रात हवा देते रहते है.
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