गुरुवार, 7 जून 2012

संसद के साठ बरस

भारतीय  संसद ने अपने साठ बरस पूरे कर लिए .किसी देश के इतिहास में वैसे तो साठ वर्ष का समय बहुत कम होता है फिर भी अपनी समझ व प्रयासों को बेहतर बनाने के लिए इन साठ वर्षों का मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है .
साठ सालों में हमारी संसद ने कई उतार  चढ़ाव  देखे ,इनमे संसद पर किया गया  गया एक आतंकी हमला भी शामिल है .हमारी संसद ने कई बार गर्व से हमारा सिर  ऊँचा किया तो कई बार हम शर्म से पानी पानी भी हुए .अच्छे  व बुरे पहलू हर एक चीज के होते है .पर चूँकि संसद देश की सर्वोच संवैधानिक संस्था है ,इसलिए उससे केवल अच्छे कार्यों की अपेक्षा स्वाभाविक है
भारतीय  लोकतंत्र धीरेधीरे अपनी जड़ें  जमा रहा है .नागरिकों में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा धीरे धीरे मजबूती पा रही है .लोकतान्त्रिक संस्कारों का विकास हो रहा है .हम एक परिपक्व लोकतंत्र की  एक ओर एक एक कदम बढ़ाते जा रहे है .
पर भारतीय लोकतंत्र की कुछ कठिनाइयाँ  भी है .साथ ही अफ़सोस इस बात का है की इन कठिनाइयों  का सामना करने के लिए अपेक्षित साहस   और नैतिक बल का हममे नितांत अभाव है .हम हर बार पाकिस्तान ,बांग्लादेश ,नेपाल आदि  का हवाला दे कर बच नहीं  सकते .यह  कहने का कोई औचित्य  नहीं कि  हमारी व्यवस्था  उनसे बेहतर  है .हमारी संसदीय प्रणाली में व्याप्त कठिनाइयों  को हमें हर हाल  में दूर करना होगा .तभी हमारी गिनती अगली कतार के देशों में हो सकेगी .साथ ही हमारी संसद की गरिमा में भी चार चाँद लगेंगे .
राजनीति   में व्याप्त अपराधीकरण  ,भ्रष्टाचार ,आर्थिक असमानता,महिलाओं और बच्चों  के नागरिक अधिकारों का संरक्षण अदि कुछ ऐसे मुद्दे है जो निरंतर बहस के विषय जरूर बनते  है पर किसी अंजाम तक नहीं पहुँच पाते  .हमें इन सवालो के हल खोजने होंगे और अभी खोजने होंगे .    

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