गुरुवार, 21 जून 2012

एक रिहाई ऐसी भी

आत्मनिर्वासन किसी व्यक्ति के जीवन में एक बड़ी त्रासदी है .स्वयं से विमोह ,जीवन से विराग ,संवादहीनता और भी न जाने कितने दुःख झेलने के बाद ऐसे स्थिति आती होगी .

ऐसे में व्यक्ति अपनी छोटी सी दुनिया को एक कैदखाने में बदल लेता है .अपने ही घर की दीवारें उसके लिए जेल की दीवारें बन जाती है ,जिसमे वह एक काल्पनिक जुर्म की सजा भोगने लगता है .दिनचर्या की सामान्य क्रियाओं में भी उसकी रूचि ख़त्म हो जाती है. भोजन और जल तक से दूर चला जाता है वह ...यह आत्मपीडा और अवसाद  का चरम होता है .

अभी एक खबर पढने को मिली .रोहणी दिल्ली की .जहाँ दो बहनें कुछ महीनो से ऐसी ही स्थितियों से गुजर रही थीं .वो लगातार भुखमरी की स्थिति से गुजरते हुए मरणासन्न स्थिति में पहुच गई थी.
.एक रिश्तेदार की दखल पे उन्हें अपने ही घर की कैद से मुक्त कराया गया .दोनों बहनों ,ममता और नीरजा का शरीर बेहद जर्जर हो चुका था किसी तरह उन्हें एम्बुलेंस में चढ़ाया गया था .एक साल हुए नोयडा से भी एक ऐसी ही खबर आई थी ,जहाँ दो बहनों को इसी तरह की कैद से आजाद कराया गया था

ये घटनाएँ शहरी जीवन की सीमाओं की ओर संकेत करती हैं. आपाधापी ,मारामारी और भागदौड़ से भरी आज  की जीवनशैली में अगर हम खुद को जरा भी अनफिट पाते  है तो स्वयं को ही नष्ट करने में जुट जाते हैं .यह आश्चर्यजनक है की महानगर में रहने वाली ,पढ़ी लिखी और पूर्णतया वयस्क दो लड़कियों ने मुश्किलों का सामना करने के बजाय ये रास्ता चुना .

फिर भी ये घटनाएँ एक सवाल पीछे छोड़ जाती है की उन परिस्थितियों का निर्माता को   है ,जो दो लड़कियों को सम्मान से ,निडर होकर जीने नहीं देता ?कोन  है वो खलनायक  जो उन्हें तिल -तिल कर मार रहा था ?

यह सवाल एक गहन समाजशास्त्रीय  विश्लेषण की मांग करता  है .साथ ही हमारी  पारिवारिक ,सामाजिक और राजनीतिक प्रणाली की यांत्रिकता, संवेदनहीनता और संवादहीनता  पर  ऊँगली  भी उठता है

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