गुरुवार, 28 जून 2012

पाकिस्तान का यू -टर्न

पाकिस्तान ने एक बार फिर इतिहास को दुहरा दिया .वैसे ये पाकिस्तान के चरित्र के अनुरूप ही  है पर सरबजीत के परिवार के लिए तो ये घटना एक भद्दा मजाक बन कर रह गयी है .साथ ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में पकिस्तान की जो किरकिरी हो रही है वो अलग . सरबजीत का परिवार वर्षो से यह लड़ाई लड़ रहा है ,कई मानवाधिकार कार्यकर्ता भी उनके साथ है ,पर इस घटनाक्रम के बाद तो सबकी आस धुंधली  नजर आने लगी है .

सरबजीत को सन 1990 में पाकिस्तान में हुए चार बम धमाकों के अभियुक्त के रूप में मंजीत सिंह के नाम से गिरफ्तार किया गया था .1991 में पकिस्तान की निचली अदालत ने सरबजीत उर्फ़ मंजीत सिंह को मौत की सजा सुनाई .जिसे हाईकोर्ट और फिर सुप्रीमकोर्ट ने बहाल  रखा .सरबजीत के मुताबिक वो एक निर्दोष किसान है जो गलती से पाक सीमा में घुस गया था .सरबजीत के परिवार ,उनके वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के द्वारा दया की कई अपीलें की गई ,पर स्थिति ज्यो की त्यों रही .

पाकिस्तानी सरकार ने सारे कयासों को झुठलाते  हुए इस बात को साफ़ तौर  पर कहा है की सरबजीत की सजा में कोई कमी नहीं की गयी है ,न ही राष्ट्रपति जरदारी ने सरबजीत की रिहाई का फैसला लिया है .इस सम्बन्ध में पाकिस्तान सरकार का तर्क है की सरबजीत अपने बयान  में अपना अपराध बहुत पहले कबूल कर चुका   है .

अगर ये बाते सच भी हो तो सवाल ये है की सरबजीत के  परिजनों के साथ ये  मजाक क्यों किया गया ,मीडिया और भारत सरकार को क्यों गुमराह किया गया .अपनी सफाई में पाकिस्तान अब चाहे  जो कह रहा हो पर ये मामला वहाँ की सरकार  की स्वायत्तता पर एक सवालिया निशान जरूर खड़ा करता है .पाकिस्तान सरकार के  असली हुक्मरान कोई और ही है ,जो संसद से बाहर  बैठ कर सरकार के फैसलों और नीतियों को प्रभावित करते है .पाकिस्तान में कट्टरपंथी ताकतों का सदा से बोल बाला रहा है .अब उसमे एक नाम और जुड़ गया है -आई एस आई का. सेना भी सरकारी कामकाज में पर्याप्त दखल और दिलचस्पी रखती है .सरकार की असली  नकेल इन्ही के हाथो में होती है .

इसमें जरा भी हैरानी नहीं होनी चाहिए की जब पाकिस्तान सरकार ने सरबजीत की रिहाई के फैसले को मीडिया के सामने पेश किया तो ये ताकते खुल कर विरोध में आ गई ,और नतीजा ये कि  सरकार को अगले 6 घंटे में ही अपना फैसला बदलना पड़ा और बोलने में लगभग एक जैसे नाम वाले उस भारतीय कैदी की रिहाई की घोषणा  करनी पड़ी ,जिसकी सजा 2004 में ही पूरी हो गई थी.

पकिस्तान ने उग्र राष्ट्रवाद की एक और मिसाल पेश की है .वहाँ की कुछ नियामक गैर सरकारी संस्थायों ने राजनीती और विदेशनीति में मानवीय पक्ष को एक बार फिर  दरकिनार किया है .





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