बुधवार, 13 जून 2012

(अ )ज्ञानपीठ के कारनामे

देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था इस वक्त विवादों में है .वैसे यह पहली बार नहीं है जब ज्ञानपीठ की कार्यशैली और वयवहार शैली पर उँगलियाँ उठी हो .इससे पहले भी दो- तीन मामले साहित्यिक हलकों में चर्चा के विषय बने और संस्थान  की खूब फजीहत हुई .नया ज्ञानोदय में छपे एक इंटरव्यू से उपजा विवाद इतना गहरा गया कि राष्ट्रपति तक को पत्र लिख कर शिकायत भेजी गयी .ध्यान रहे भारत का राष्ट्रपति संस्थान का प्रधान ट्रस्टी होता है .
भारतीय ज्ञानपीठ के पिछले इतिहास को उठा कर देखे तो ऐसे विवादों के लिए कोई गुंजाइश  नजर नहीं आती है .ज्ञानपीठ के प्रकाशन ,दिए जाने वाले पुरस्कार हमेशा निर्विवादित होते थे .पर आज जो मामला सड़क पर है उससे तो यही लगता है की भारतीय ज्ञानपीठ की कार्य शैली में परिवर्तन ही नहीं बल्कि गिरावट आई है , संस्थान की प्रतिष्ठा खतरे में पड़  गयी है .जो मामला इस वक्त चर्चा में है वो है युवालेखक गोरव सोलंकी का .सोलंकी ने विलम्ब की वजह से अपनी पांडुलिपियाँ  ,कई बार इग्नोर किये जाने और अपमानित होने के बाद ,वापस माँगा ली है .अपने पुराने संबंधों को तिलांजलि देते हुए उन्होंने ज्ञानपीठ के निदेशक के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया है .सोलंकी के इस साहस  पूर्ण कदम के बाद कई और पीड़ित और सताए हुए जन सामने आए है ,जो शायद अकेले इस संसथान से मोर्चा नहीं लेना चाहते थे .पर अब तो" साथी हाथ बढ़ाना " जैसी स्थिति हो गयी है .वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने भी अपने मोहभंग को सार्वजानिक कर दिया है .
ज्ञानपीठ के पतन की शुरुवात तबसे हुई जब संस्थान  के वर्तमान निदेशक ने पदभार ग्रहण किया ,तभी से ज्ञान पीठ के लम्पटीकरण का प्रारंभ हुआ .यह आपसी खुन्नस निकलने ,कृपापात्रों  को उपकृत करने और परस्पर पीठ खुजाने का अड्डा बन गया .आज आलम यह है की ज्ञानपीठ द्वारा संचालित कई महत्वाकांक्षी  योजनाये संदेह के दायरे में आ गयी है .
फिलहाल उम्मीद यही की जा सकती है की भारतीय ज्ञानपीठ  इस संकट से जल्द ही उबरेगा और अपनी प्रतिष्ठा  और गरिमा को पुनः स्थापित कर सकेगा








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