गुरुवार, 2 अगस्त 2012

मदारी पार्टी अब चुनाव लड़ेगी ?

पिछले एक हफ्ते से जंतर मंतर पर चल रहा तमाशा अब थमने जा रहा है .टीम अन्ना अपना तम्बू उखाड़ने जा रही है .जनता, मीडिया और सरकार की उपेक्षा से आहत टीम अन्ना ने अपनी दूकान समेटने से पहले एक शिगूफा ज़रूर छोड़ा है कि अब वो राजनीतिक खेल दिखायेगी .टेलीविजन पर एक विज्ञापन आता है - "आज कुछ तूफानी करते है ",तो टीम अन्ना अब कुछ तूफानी करने वाली है .टीम अन्ना का ये रुख स्पष्ट होते ही मोबाइल कंपनियों ने अपनी कमाई शुरू कर दी .एस एम एस के बहाने जनता के जेब काटने का खुला खेल फर्रुखाबादी शुरू हो चूका है .अगर आपकी राय हाँ या ना है तो आप भी इसमें हिस्सा ले सकते है .

टीम अन्ना के सक्रिय  सदस्य " दी ग्रेट अरविन्द केजरीवाल " का अभी कल तक ये कहना था की वो खुद को बलिदान कर देंगे ,पर अनशन नहीं तोड़ेंगे .इस बार टीम अन्ना नया आइटम पेश कर रही थी ,हमेशा की तरह भ्रष्टाचार पर सीधा हमला नहीं किया जा  रहा था .इस बार के शो का नाम था "१५ भ्रष्ट मंत्रियो को जेल भेजो ".इस सम्बन्ध में स्वयं अन्ना का कहना था की इन मंत्रियो के जेल जाने तक अनशन चलता रहेगा .इस घोषणा  के साथ वो स्वयं भी मंच पर उतर  आये थे ,आज उनके अनशन का तीसरा दिन है .पर तमाशे में कुछ गर्मी नहीं आई .भीड़ जरूर जुटी पर मीडिया और सरकार ने ख़ास तवज्जो ना दिया .टीम अन्ना के भोपू "कुमार विश्वास ", जो घटिया फूहड़ मंचीय कविताओं के लिए जाने जाते है ,मंच से और टी वी चैनलों पर यथाशक्ति चिल्लाते रहे .पर तमाशे में  रंग न भर सका .....लेकिन ......लेकिन अचानक टीम अन्ना की आंखे खुल गयी .उन्हें बोधि प्राप्त हो गया .लोकतांत्रिक संस्थाओ को गरियानी वाली टीम अन्ना अधिक  देर होने से पहले अपने आन्दोलन  की निरर्थकता को भांप गयी .अब वो गीता के कर्मयोग का पालन करते हुए जनता के दरवाजे पर जाएगी .उनसे वोट की भीख  मांगेगी .अपनी सरकार बनाएगी और फिर लोकपाल विधेयक पास कराएगी .इस पूरे कार्यक्रम में कुमार विश्वास और अरविन्द केजरीवाल जनता का उत्तेजक मनोरंजन करते रहेंगे ........

आज टीम अन्ना ने बिलकुल उन नेताओं जैसा व्यवहार किया है जिनके खिलाफ वो अब तक लडती आई है .मध्यवर्ग के जिस असंतोष का नेतृत्व टीम अन्ना कर रही थी ,आज उस असंतोष में थोडा और इजाफा हुआ है .जिस तरह नेता जनता को  ठगते आये है उसी तरह आज टीम अन्ना ने भी उसे  ठगा है .आज लडखडाती  टीम अन्ना के पास कोई सहारा नहीं है .भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके अहिंसक ,गांधीवादी आन्दोलन  की हवा निकल गयी है .टीम अन्ना के सदस्यों को तो गांधी दर्शन का ग भी पता नहीं होगा .अब तो ये आशंका होने लगी है किअरविन्द केजरीवाल अपनी राजनीतिक हसरतो को पूरा करने के लिए कहीं अन्ना का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे थे .आज उन्होंने इस आन्दोलन   कि तुलना जे पी आन्दोलन से कीऔर कहा कि लालू और मुलायम जैसे नेता इसी आन्दोलन से पैदा हुए .तो क्या अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का सिर्फ इतना ही हासिल है कि इससे अरविन्द केजरीवाल और कुमार  विश्वास जैसे नेता पैदा होंगे ?और ये वही सब करेंगे जो लालू और मुलायम कर रहे है .?

बाबा रामदेव और टीम अन्ना की  राजनीतिक हसरतें अब किसी से छुपी नहीं है .दुखद तो ये है कि जनता को जो सब्जबाग इन्होने परोसे ,अब उसको दुहने की तैयारी कर रहे  है .अगस्त २०१० में टीम अन्ना ने जो  फसल बोई  थी  अब उसको काटने की  बारी है .....और मासूम जनता इन मदारियों के नए खेल का इन्तजार कर रही है .

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

संगमा की बौखलाहट


राष्ट्रपति चुनाव के  नतीजे सामने है .प्रणव मुखर्जी के पक्ष में जो अंकगणित  थी , ये परिणाम उसी के अनुरूप है .प्रणव ने भारी जीत दर्ज की है .इसमें संप्रग गठबंधन का तो हाथ है ही साथ ही उनकी निजी छवि ने भी वोट जुटाने में अहम् भूमिका  अदा की है .प्रणव आज की राजनीति में उन कुछ बिरले नेताओं में से है जिनकी पैठ हर दल में है . वे राजनीति के पुराने धुरंधर  है जिनके पास एक लम्बा प्रशासनिक और संसदीय अनुभव है .उनके जैसे कार्यकर्ता के लिए ये उचित ही है की उनकी विदाई देश के सर्वोच्च पद से हो .राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को ले कर आज पूरे देश में संतोष और  स्वागत  का भाव है ., एक शख्स को छोड़ कर .ये है उनके प्रतिद्वंदी पी ए संगमा.

प्रणव मुखर्जी को जीत की औपचारिक  बधाई देने के बाद उन्होंने कोर्ट जाने  की बात  कही है .वे राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को हाईकोर्ट में चुनौती देंगे .इससे पहले वे प्रणव की उम्मीदवारी को अदालत में चुनौती  दे चुके है .पर कोर्ट ने उनकी यह अपील ख़ारिज कर दी थी .

अपने प्रचार के दौरान संगमा की बेचैनी कई रूपों में सामने आ चुकी है .उन्होंने देश के पहले आदिवासी  राष्ट्रपति के रूप में चुने जाने की अपील की .अंतरात्मा की आवाज के आधार पर वोट करने को कहा .अंत तक वो कहते रहे की परिणाम आने के बाद कुछ चमत्कार अवश्य होगा .पर ऐसा कुछ न हो सका .संगमा खुद भी लम्बा राजनीतिक अनुभव रखते है .लोक सभा अध्यक्ष  के रूप में उन्होंने काफी प्रतिष्ठा अर्जित की थी .उन्हें इतना तो पता होगा ही की चुनाव अंतरात्म्मा की आवाज  के आधार पर न तो लड़े जाते है ना ही चमत्कारों के दम पर जीते जाते है .एक नेता की व्यक्तिगत  खूबियाँ और उसका योगदान ही ऐसे मौके पर काम आता है .पर इसको क्या कहा जाय की वो अपने राज्य मेघालय में भी प्रणव मुखर्जी से पीछे रहे .उनके राज्य के जनप्रतिनिधियों ने भी उनके इस चमत्कारी अनुष्ठान में उनका साथ नहीं दिया . यही नहीं संगमा के समर्थन में आये राजग के घटक दलों में भी उनको ले कर आम राय नहीं बन पायी .जनता दल( यू) और शिवसेना ने उनके खिलाफ वोट किया .उन्हें ममता बनर्जी के  समर्थन की पूरी आस थी पर आखिरी  वक्त में वे भी बंगाली मानुष के साथ हो ली .फिर ये समझ में नहीं आता की संगमा को अपनी जीत की आस क्यूँ कर थी .

संगमा एक ओर अपनी हार को स्वीकार तो चुके है ,पर शायद चमकारों पे उनका भरोसा अब भी कायम है .वे कोर्ट के सहारे राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया को कटघरे में खड़ा करना चाहते है .ऐसे में संगमा जैसे वरिष्ठ  नेता कुछ जरूरी बातों को भूल जाते है ,जिनका अहसास उन्हें हर पल होना चाहिए .भारत में राष्ट्रपति चनाव की अपनी एक गरिमा है. देश के सर्वोच्च पद का ये चुनाव सदा विवादों से परे रहा है .पर लगता है ,संगमा को  इस परंपरा की तनिक भी परवाह नहीं है .वो इतिहास में एक शर्मनाक मोड़ लाना चाहते है .ये  स्थिति बेहद निराशजनक  है .अब देखना है कि वे इस सर्वोच्च पद कि मर्यादा का सम्मान करते है या अपनी बौखलाहट छुपाने का ये आखिरी दाव भी आजमाते है .

शनिवार, 21 जुलाई 2012

कुछ टूटा फूटा


जिनके कट्टा
उनकी सत्ता

ये फेटें सत्ते पे सत्ता

सत्ता की छत्ता  में
ये घुमड़े  मदमत्ता

हाथ में साधे छूरी  चाकू
मुहँ में चापें  पान का पत्ता
संसद में भरें कुलांचे
भये इकठ्ठा सारे लत्ता

जनता के दुःख सुख खट्टा मिट्ठा
मुद्दे हो गए दही और मट्ठा
कान में लुकड़ी डाल के
सोयें मुलुक के कर्ता धर्ता

जो चाहे वो बहे बिलाए
इनको तो बस
कोई फरक नहीं अलबत्ता


बुधवार, 18 जुलाई 2012

मैं तेरी आँखों में आंसू नहीं देख सकता ,पुष्पा !

बचपन में मार धाड़ वाली फिल्मे मुझे बहुत पसंद थी .जिसमे हीरो एक साथ कई गुंडों की धुनाई करता था .पर उम्र बदली तो पसंद भी बदली .कोई दसवीं क्लास में था ,जब पहली बार मैंने "आनंद " देखी  थी .हृषिकेश मुखर्जी की अद्भुत रचना है ये फिल्म .आनंद के रूप में एक अनूठा चरित्र पेश किया था उन्होंने ,जो तब से पहले हिंदी सिनेमा का हिस्सा नहीं था .एक क्लासिक फिल्म के सारे स्वाद है इस फिल्म में ...ये सारी बाते तो बाद में पता चली .थोडा और बड़े होने पर .उस वक्त जिस चीज ने दिल को सबसे जादा छुआ वो थी राजेश खन्ना की  नायाब अदाकारी ..आनंद की रचना तो जरूर हृषिकेश मुखर्जी ने की थी ,पर उसे जीवंत बनाया राजेश खन्ना ने .अपने सरल और सहज अभिनय से उन्होंने आनंद को हिंदी सिनेमा का अमर चरित्र बना दिया .इस रोल ने मेरे मन पर ऐसी  छाप छोड़ी कि  राजेश खन्ना की हर फिल्म में वो मुझे आनंद  ही नजर आये .अगर भारतीय फिल्म इतिहास की सारे नायकों की पड़ताल की जाये तोमेरी समझ से कोई दूसरा कलाकार  आनंद के रोल में फिट न बैठता .ये किरदार सिर्फ वो ही निभा सकते थे .और उन्होंने बखूबी निभाया भी .

वो हमारे  हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे .जो स्टारडम,जो शोहरत राजेश खन्ना के हिस्से आई वो फिर किसी को नहीं मिली . उन्हें देखने के लिए दीवाने दर्शको की भीड़ लग जाती थी .उनकी गाड़ियों पर प्रेम सन्देश  लिखे जाते थे .लडकिया उनकी तस्वीर  से शादी रचाती थी ....फिल्म उद्योग में ऐसा एखलाक, ऐसी स्वीकार्यता किसी को नहीं मिली..... .वो एक बेहतर कलाकार  ही नहीं एक बेहतर इंसान भी थे .

राजेश खन्ना ने फिल्म जगत में तब कदम रखा जब हिंदी सिनेमा की महान तिकड़ी (राज कपूर ,दिलीप कुमार,देव  आनंद ) अपने अवसान पर थी .इस तरह इंडस्ट्री में जो एक खालीपन आ गया था ,उसे राजेश खन्ना ने ही भरा .वो मानो इस तिकड़ी  के सम्मिलित  अवतार थे . इन तीनो कीखूबियाँ उनमे थीं . उनके अभिनय में राज कपूर की सादगी थी ,तो दिलीप साहब की नफासत भीऔर देव आनंद का चुलबुलापन भी .उन्होंने दर्शकों को पूरी खुराक दी .बदले में दर्शकों ने उन्हें भरपूर प्यार से नवाजा .तभी फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें रिकार्ड सफलता मिली .लगातार १५ सुपर डुपर हिट फ़िल्में देना उन्ही के बस का था .१५० से अधिक फिल्मों में अभिनय करने वाले राजेश  खन्ना ने २५ सालों तक इंडस्ट्री पर राज किया .उन्होंने साबित किया की वही इस इंडस्ट्री के पहले सुपरस्टार है .

सिनेमा के परदे पर राजेश खन्ना की इमेज एक रोमांटिक नायक की थी .वो एक ऐसे मध्य वर्गीय युवा को चित्रित करते थे जो परम्पराओं से जूझते हुए अपना रास्ता बनाता था .जिसे कभी मान मर्यादा के नाम पर कुर्बानी देनी पड़ती थी तो कभी नियति के निर्णय के आगे विवश  हो जाना पड़ता था .जो बेहद रोमांटिक था लेकिन दिलफेंक जरा भी नहीं .उसे पता  था की उसकी हद कहाँ  तक है .पर वो परम्पराओं का मात्र  मूक समर्थक भी नहीं था ,उसमे बदलाव की बेचैनी और तड़प भी थी .राजेश खन्ना ने फिल्म के परदे पर जिस सहज, सरल और मृदु भारतीय युवा की छवि पेश की ,बाद में अमिताभ बच्चन के "एंग्री यंगमैन "ने उसी का अतिक्रमण किया .

राजेश खन्ना की यादगार फिल्मो की लिस्ट बहुत लम्बी है .उसे यहाँ दुहराने से कोई फायदा भी  नहीं .फिलहाल ये वक्त है उस कष्ट से उबरने का जो वो जाते जाते हमें दे गए है .एक कलाकार जीवन भर हमारा मनोरंजन करता है ,पर आखिरी वक्त में तो हमारी आँखे नम कर ही जाता है .

रविवार, 15 जुलाई 2012

ओबामा की नेक सलाह

तो आज सबको पता चल ही गया की भारत की अर्थव्यवस्था के  विकास में सबसे बड़ा रोड़ा क्या है .इसका सारा क्रेडिट जाता है अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को .इन्होने गहन मंथन के बाद  आखिर इस गुत्थी को सुलझा ही दिया .पी टी आई को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया  कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की मंजूरी न दे कर भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था की विकास दर   को मंद बना रखा है .विदेशी निवेश (अर्थात अमेरिकी निवेश )को मंजूरी दे कर हमारी सरकार अर्थव्यवस्था  की तीव्र विकास दर का लुत्फ़ तो उठाएगी ही ,साथ ही जो ढेर सारा रोजगार सृजित होगा वो अलग ....हम सब धन्य हुए जो ओबामा महोदय ने अपना कीमती समय दे कर भारत जैसे देश के बारे में इतना चिंतन किया .

दूसरे के फटे में टांग अडाना अमेरिका का पुराना शगल रहा है .विश्व का शायद ही कोई देश हो जिसके आतंरिक या वाह्य मामलों में अमेरिका को दिलचस्पी ना हो .और अगर बात भारतीय उप महाद्वीप के देशों की हो तो ये कुछ ज्यादा ही वाचाल हो जाता है.भारत पकिस्तान के बीच तनाव को गुप चुप हवा देने में अमेरिका का हाथ सदा से रहा है ....वैसे ओबामा ने आज ही एक और बयान दिया है कि भारत पकिस्तान के मसले दोनों देशो को आपस में मिल कर सुलझाना चाहिए .

ओबामा ने आज अमेरिकी कूटनीति कि एक नायब मिसाल पेश कि है .अभी कुछ ही दिन पहले टाइम मैगजीन  ने भारतीय प्रधानमंत्री की रैंकिंग जारी करते हुए उन्हें एक ख़राब प्रधान मंत्री बताया था .ओबामा का बयान उसकी अगली कड़ी है .पहले वो भारतीय प्रधानमंत्री कोहीनता बोध कराते है ,और अब उससे उबरने का मौका सुझा  रहे है ..मनमोहन सिंह एक ख़राब प्रधान मंत्री इसलिए है क्योंकि यहाँ अर्थव्यवस्था सुस्त है ,इसे तेज करने का उपाय ये है कि वो अमेरिकी कंपनियों को भारत के खुदरा क्षेत्र में उतरने दे .ऐसा होने पर .हो सकता है टाइम के किसी अगले अंक में ये छपे कि मनमोहन सिंह  सबसे बेहतर प्रधानमंत्री है .ध्यान रहे अमेरिका ने ये दोनों कसरत तब की है जब उसे पता है कि वित्त मंत्रालय इस वक्त मनमोहन के पास है ,और भारत में उनकी छवि आर्थिक सुधारों के जनक की है .भारत में प्राइवेट कंपनियों के लिए रास्ता खोलने वाले वही है .

इसके अलावा भारत -पाक रिश्तों पर टिप्पड़ी दे कर ओबामा अपनी एक तटस्थ छवि भी प्रस्तुत करते है .वो कहते है की भारत ,पाक को अपने रिश्ते कैसे मधुर बनाने है ये बताना अमेरिका का काम नहीं है ....पर भारतीय अर्थव्यवस्था शायद अपवाद है .

ओबामा ने आज एक तीर से कई शिकार किये है ,इससे उनका भी हित सधता है .इस वक्त वो राष्ट्रपति चुनावो की तैयारी में है . इस चुनाव में वे भी एक उम्मीदवार  है .उनका ये तीर अमेरिका के बड़े उद्योगपतियों को भी लक्ष्य कर के छोड़ा गया है .ओबामा  ये जतलाना चाहते है कि उन्हें इन उद्योगपतियों कि कितनी परवाह है .अगर भारत निवेश के रास्ते  खोलता है तो इनकी चांदी  हो जाएगी ..आखिर चुनाव में इनके नोट और सपोर्ट की भारी जरूरत जो है उन्हें .

अंत में ओबामा को धन्यवाद करते हुए यही कहना होगा कि हमें अपने आतंरिक मामलों कि समझ उनसे बेहतर है ,और अपनी कठिनाइयों से निपटने के लिए हमें उधार के विचार या सुझाव कि आवश्यकता तो कत्तई नहीं है
.

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

शर्म हमें मगर क्यूँ आती नहीं

आज पूरा मीडिया सराबोर है .तीन- तीन ब्रेकिंग न्यूज़ ,तीनो मसालेदार .एक न्यूज़ में २० लोग एक लड़की को  नंगा करने की कोशिश कर रहे है ,उसका  वीडियोशूट किया गया ,फिर उसे यू-ट्यूब  पर अपलोड किया गया ....दूसरी खबर जिसमे पुलिस थाने में एक दरोगा एक महिला के साथ दुर्वयवहार कर रहा है ,थाने में तैनात और लोग तमाशबीन की भूमिका में खड़े रहते है ,आखिर ऐसे दुर्लभ दृश्य किस्मतवालो को ही देखने को मिलते है ..,मामले का खुलासा  तो तब होता है जब वो दिलेर औरत किसी तरह खुद भाग कर बाहर आती है .मीडिया के पहुँचते ही सारे  पुलिसवाले दरोगाजी   के बचाव में आ जाते है कि वो मनोरोगी है ..ये जवाब काबिले गौर है .हमारी आप की हिफाजत करने के लिए सरकार ने ख़ास तौर पे मनोरोगी थानेदार नियुक्त कर रखे है ...ऐसी सरकार को शत -शत नमन है ......तीसरी खबर ऐसी है जो दुनिया की किसी भी भाषा में शायद बयां नहीं की जा सकती ....एक नाबालिग लड़की को उसीके परिजनों (भाई और भाभी ) ने गर्त में धकेल दिया .....कुल मिला कर आज तो इलेक्ट्रानिक मीडिया की चांदी है. टी आर पी बढ़ाने का सुनहरा मौका?

आइये टेलीविजन से बाहर  की दुनिया पर जरा गौर फरमाएं ...ये सब तो होता ही रहता है ..आखिर इतना बड़ा देश है ...थोडा राज काज पर नजर डालें ...इन तीन शर्मनाक हादसों के बाद  हमारे महान अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री हमेशा की तरह खामोश है ,विश्व की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक और केंद्र सरकार की आलाकमान श्रीमती सोनिया गाँधी (जो इत्तेफाक से खुद भी एक महिला है ) बिलकुल चुप है ...क्योकि उनकी हिंदी अच्छी नहीं है ,वो तभी बोलती है जब उन्हें कुछ लिख कर दिया जाता है .देश के अगले संभावित राष्ट्रपति अपना समर्थन जुटाने में मशगूल है ,वैसे पिछले दस सालों में वो तभी बोलते थे जब मनमोहन सरकार पर कोई संकट आता था ,यानी ये उनकी दिलचस्पी का विषय नहीं है ...बाबा रामदेव ,अन्ना हजारे ,अरविन्द केजरीवाल केवल कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर गला फाड़ते है ,अगर तीन महिलायों के साथ सरेआम दुर्वयवहार हुआ तो ये बेचारे क्या करे ,ये कोई भ्रष्टाचार का मुद्दा तो है नहीं ...हमारे बुद्धिजीवी भी ऐसी रोजमर्रा की घटनाओ पर कुछ कहने के आदी नहीं है,अगर इमरजेंसी ,भोपाल गैस त्रासदी ,वर्ड ट्रेड सेंटर,ब्रह्मेश्वर दिव्वेदी  हत्याकांड या नक्सलियों पर हमला  जैसी कोई घटना होती तो ये लोग भी अपनी कीमती राय व्यक्त  करते .....हाँ  अगर कवि लोग चाहेंगे तो एक आध महीने में एक कविता इस घटना पर जरूर लिख मारेंगे ,पर अभी उन्हें छेड़ने की जरूरत नहीं है

कहने सुनने के तौर पर एक बयान आया है ,पुलिस सरगना (अर्थात डी जी पी) का कि हम देश के हर नागरिक के पीछे पुलिस का आदमी नहीं खड़ा कर सकते ..पर जनाब यहाँ तो मामला थाने में ही  रेप की कोशिश का है .इसका क्या जब रक्षक ही भक्षक बन जाये ,तिजोरी ही हार को निगल जाये .तब क्या करे ये मुआ आम आदमी ..किस फ़रिश्ते के सामने लगाये गुहार .या फिर शर्म बेबसी और जलालत से तंग आकर डूब मारे कहीं  जा कर .

ये घटनाये दुनिया की तमाम लक- दक पे एक बदनुमा दाग की तरह है .हमारे सभ्य होने पे एक सवालिया निशान लगाती है ये घटनाये .भारतीय संविधान  की प्रस्तावना में आये "लोक कल्याण कारी राज्य " पद की एक दुखद पैरोडी है ये घटनाये . आजादी के साठ साल हो जाने के बावजूद आज तक हम  महिलायों के लिए एक सुरक्षित कोना नहीं बना पाए .समाज ,क़ानून यहाँ तक कि उसका घर तक सुरक्षित नहीं है उसके लिए .

महिलायों पर हिंसा के न जाने कितने प्रकार है ,ये तो कोई अपराध विज्ञानी ही बेहतर बता सकता है ..पर इन  सब में सबसे त्रासद होता है उसके आत्मसम्मान, उसकी इज्जत कि धज्जी उड़ाना.ऐसी घटनाये उसे एक जीवित लाश में बदल कर रख देती है .कोई विरला ही होगा जो इस कदर प्रताड़ित होने के बाद फिर से अपना जीवन सामान्य ढंग से जी सके .

तमाम किताबी सैद्धांतिकी के बावजूद महिलायों को ले कर व्यावहारिक  सच बिलकुल उलट है .महिलाओं  के बारे में  हमारी सोच में कोई मूलभूत परिवर्तन आज तक नहीं हो सका है .वही मध्ययुगीन (या शायद और भी पीछे ?)सोच की गठरी हमारे दिमाग में रखी है .. नई.तकनिकी ने महिलायों के अपमान की कुछ और  प्रविधियां विकसित की है .यम यम एस उनमे से एक है .नेट पर आज ऐसे विडियो का अच्छा खासा दर्शक वर्ग है .दुस्साहस या कुछ विचित्र घटनाओ वाले एडल्ट  विडियो सभ्य समाज में चटकारे ले कर देखे जाते है .आसाम के गुआहाटी  की घटना एक ऐसा ही विडियो तैयार करने  वाली  विकृत सोच की कोशिश थी .अफ़सोस की उनके मंसूबे पूरे हो गए .
बहरहाल आज की ये तीनों शर्मनाक घटनाये बेहद करुणऔर दारुण है .हर एक  संवेदनशील व्यक्ति इन्हें सुन कर बौखला गया  है साथ ही निजाम की उदासीनता देख कर वो  बेहद हताश भी है ...क्या आपको नहीं लगता की हमारी केंद्र सरकार को आज का दिन "राष्ट्रीय शर्म दिवस" के रूप में घोषित कर देना चाहिए

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

रुस्तम-ए -हिन्द को आखिरी सलाम

आपको ७० के दशक के कई ऐसे फ़िल्मी दृश्य याद होंगे ,जिसमे हीरोइन को कुछ गुंडों ने घेर लिया हो या फिल्म का नायक किसी संकट में हो .तभी स्क्रीन पर ६ फुट २ इंच का एक पहलवानी शख्स प्रकट होता है जो देखते ही देखते सारे गुंडों को अपने देशी अंदाज से धूल चटा देता है .उधर परदे पर एक्शन सीन  चल रहा होता है और इधर आपकी नशें फड़क रही होती है .

या फिर भारतीय टेलीविजन इतिहास के पहले मेगा सीरिअल "रामायण" के हनुमान को कोई कैसे भुला सकता है .जिसने हर घर और हर मन में अपनी पैठ बना ली थी .

हमारे  मष्तिस्क में हनुमान की एक स्थायी छवि अंकित करने वाले कलाकार दीदार सिंह रंधावा उर्फ़ दारा सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे ......

अपने ६०  साल के एक्टिंग करियर में दारा सिंह ने फिल्म और टेलीविजन के कई यादगार किरदार निभाए .सन १९६२ में कुश्ती पर बनी फिल्म "संगदिल"से एक लोकप्रिय अभिनेता के जिस सफ़र की शुरुआत हुई वो २००७ में बनी "जब वी मेट " तक जारी रहा. दारा सिंह हिंदी सिनेमा के सम्भव्तः पहले ऐसे सहकलाकार थे जिनके हर सीन पर हीरो से अधिक तालियाँ और सीटियाँ बजती थी .उनकी संतुलित अदाकारी और संवाद अदायगी हिंदी सिनेमा के दर्शक कभी नहीं भूल पाएंगे .अभिनेता प्रदीप की तरह दारा सिंह भी  धार्मिक फिल्मों के एक अनिवार्य कलाकार बन गए  थे .

१९३८ में पंजाब के अमृतसर में जन्मे दारा सिंह ने अपने करियर की शुरुवात एक पहलवान के रूप में  की ,जिसमे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति मिली .उन्होंने मलेशिया और भारत की तरफ से "विश्व रेस्ट्लर चैम्पियनशिप" का खिताब भी जीता .स्वदेश वापसी के बाद वो हिंदी और पंजाबी सिनेमा में सक्रिय हो गए .एक अभिनेता और निर्माता के रूप में उन्होंने पिछले ६० सालो तक सिनेमा को अपने महत्वपूर्ण योगदान से नवाजा .

अपने निजी जीवन में भी दारा सिंह ने कई विविघतापूर्ण भूमिकाओं  का सफलता पूर्वक निर्वहन किया .एक पहलवान से लेकर एक  अभिनेता ,निर्माता और एक राजनेता के रूप में उन्होंने अपनी लोकप्रियता में चार चाँद लगाये .उन्होंने एक भरपूर और कामयाब जिंदगी जी .वो उम्र के आखिरी पड़ाव तक सक्रिय रहे ,उन्होंने अपने प्रशंसकों को कभी ये लगने ही नहीं दिया कि हर शख्स कि जिंदगी में एक ऐसा वक्त भी आता है जब उसे सबको अलविदा कहना पड़ता है .

दारा सिंह  की कमी हर उस क्षेत्र में अखरेगी जहाँ उन्होंने सफलता और कामयाबी के झंडे गाड़े ,पर फिल्मों में निभाए गए उनके अमर किरदार कभी भी हमारे दिल में उनके प्यार और सम्मान को कम नहीं  होने देंगे.

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

निकाय चुनाव नतीजों का अर्थात

उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव के परिणाम जरा भी चौंकाने वाले नहीं है .ऐसा एक सामान्य अनुमान तो था ही कि  अपनी आर्थिक नीतियों के चलते कांग्रेस को इन चुनावों  में भी मुँह  की खानी पड़ेगी .विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को यू पी  में ये दूसरा झटका है .ये परिणाम आगामी लोकसभा चुनावों में जनता के रुझान का एक खाका तो खींचते ही है .ये परिणाम यू पी में लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा दोनों तय  करेंगे .

इन चुनावों में कांग्रेस अपना खाता  तक  नही  खोल पाई .केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए इससे शर्मनाक बात कोई दूसरी नहीं हो सकती .यू पी ए का दूसरा कार्यकाल घोर निराशाजनक और विडम्बनापूर्ण दौर से गुजर रहा है .आर्थिक मोर्चे पर ये सरकार बुरी तरह से फ्लाप हो चुकी है ,जबकि अर्थशास्त्र की गहन समझ रखने वाले शीर्ष राजनेता इसी दल में है .

विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के ट्रम्पकार्ड राहुल गाँधी पहले ही अपना अर्थ  खो चुके है ..लगता है कांग्रेस अभी इस सदमे से  उबर नहीं पाई है .वह अपने  संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने के बजाय अभी उसी  हार का शोक मना रही है .विधानसभा चुनावों में हार का ठीकरा पार्टी के संगठनात्मक ढांचे पर टूटा था. कांग्रेस के परंपरागत चाटुकार नेताओं ने राहुल गांधी का भरपूर बचाव किया था .हैरानी की बात है की इस स्वीकारोक्ति के बाद भी कांग्रेस जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ नहीं कर सकी .

इन परिणामों ने भाजपा को थोड़ी रहत जरूर दी है महापौर के १२ में से १० सीटें उसके खाते में आई है .पर छोटे शहरों में भाजपा का प्रदर्शन भी कुछ ख़ास नहीं रहा .

ये परिणाम थोड़े और दिलचस्प हो सकते थे अगर सपा और बसपा भी खुल कर मैदान में आते .दोनों पार्टियों के पीछे हटने का कारण भी हालिया विधान सभा चुनाव ही है .जहाँ अपनी करारी हार से सहमी बसपा कोई और सदमा झेलने की स्थिति में नहीं थी ,वही सपा भी अपनी जीत की खुशफहमी  को गलत साबित नहीं होने देना चाहती थी .

दरअसल यहाँ असली इम्तेहान तो भाजपा और कांग्रेस का ही  था ,जिसमे कांग्रेस फेल हो गयी है और भाजपा को पासिंग मार्क मिले है .

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

पहले हाँ फिर ना

अखिलेश सरकार ने जैसे तैसे अपने १०० दिन पूरे कर  लिए है  .कुल मिला कर सरकार का प्रदर्शन औसत ही कहा जायेगा .चुनाव से पहले उनकी  पार्टी ने जनता को विकास और बदलाव के एक से बढ़ कर एक सुहाने सपने दिखाए थे .जनता ने उन्हें पूर्ण बहुमत देकर एक सुरक्षित राजनीतिक पारी शुरू करने का अवसर  भी दिया .पर सरकार अभी तक जनता के अरमानो के अनुरूप प्रदर्शन नहीं ही कर पाई है .अखिलेश इस वक्त संभवतः देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री है .उनके सत्ता सम्हालते ही ये उम्मीद मजबूत  हो गयी थी कि  शायद अब उत्तर प्रदेश विकास की पटरी पर आ सके .अखिलेश की  युवा सोच ,उर्जा और नयी  दृष्टि से शायद प्रदेश की तस्वीर में कुछ चटख  रंग भर  जाये  .पर अखिलेश सरकार ऐसा  कुछ करती दिखाई  नहीं दे  रही है .अभी तक उन्होंने  ऐसा कोई भी संकेत  नहीं दिया है जो ये साबित कर सके कि वो जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप शासन  चला  रहे  हो.

अभी हाल की कुछ घटनाओ ने अखिलेश सरकार की एक नकारात्मक  छवि  प्रस्तुत  की है .अखिलेश सरकार में इच्छा शक्ति का अभाव साफ़ नजर आने लगा है .निर्णय  लेने में अतिउत्साह, अदूरदर्शिता,इनकी पहचान बनती जा रही है .सरकार ने बिना सोचे समझे ऐसे दो फैसले जनता पर थोपने की कोशिश की जिन्हें विरोधों की वजह से २४ घंटे के भीतर ही वापस लेना. पड़ा सरकार ने बिजली  कटौती को लेकर जो फरमान जारी किया था उसकी अगले २४ घाटों में ही हवा निकल गयी .येही हश्र उस  फैसले का भी हुआ जिसमे विधायको को २० लाख तक की कर खरीदने का वरदान दिया गया था, रातो रात अखिलेश को ये फैसला भी वापस लेना पड़ा. इन दो घटनाओ ने अखिलेश को एक हास्यास्पद  स्थिति में पंहुचा दिया है .

अखिलेश  सरकार की जो एक सबसे बड़ी कमी उभर  कर सामने  आई  है वो है परस्पर  संवाद का अभाव  .अखिलेश सरकार में कई ऐसे अनुभवी और दिग्गज नेता है जो काफी वर्षों से उनकी पार्टी और प्रदेश की राजनीति  में सक्रिय है .उनके पिता खुद  राजनीति  के एक मंजे हुए खिलाड़ी है .अखिलेश को इन सभी  के अनुभवों  का लाभ उठाना चाहिए पर इन दो घटनाओं के अंजाम ने इतना तो खुलासा कर ही दिया की अखिलेश कोई फरमान जारी करने से पूर्व अपने मंत्रिमंडल से शायद ही विचारविमर्श करते हो.वो संभवतः वाह वाही लूटने  के चक्कर  में खुद ही ये दूर की कोड़ियाँ खोज कर लाते है और फिर जनता के सामने उनका मुजाहिरा कर देते है .इसमें हैरत नहीं की अखिलेश के इन दोनों बोल्ड फैसलों के प्रति विरोध के स्वर उनके विधायको में भी सुनायी  दिए .यदि सत्ता सञ्चालन के लिए अखिलेश एक लोकतान्त्रिक पद्धति का अनुसरण करके ,पहले से फुलप्रूफ फैसले लेते तो शायद ये नौबत न आती .

ये सच है की किसी सरकार की विशेष पहचान दो वजहों से बनती है ,एक तो उसके द्वारा लिए गए बोल्ड (या कहे ताजा)फैसले और दूसरा उसके द्वारा किये गए विकास कार्य .अखिलेश सरकार पर जन आकांक्षाओं  का भा री दबाव है. वो जल्द ही अपनी सरकार को एक  लोकप्रिय सरकार में बदलते हुए देखना चाहते है .पर ये सबकुछ बिना किसी हड़बड़ी या उतावलेपन के होना चाहिए .सरकार का हर फैसला पूरी गंभीरता और तैयारी  के साथ होना चाहिए .

  अखिलेश सरकार को अभी काफी लम्बा सफ़र  तय  करना है .तो ये आवश्यक है की वो फूंक फूंक कर कदम रखे ताकि जनता एक युवा मुख्यमंत्री के रूप में लम्बे समय तक उन्हें  याद रख सके.







बादलों की आँख मिचौली

आषाढ़ बीत गया ,सावन में भी दो तीन दिन निकल गए ,पर धरती अभी प्यासी की प्यासी ही है .तालाब पोखर सूख गए है .नदियों का हाल भी बुरा है .पुश पक्षी, जड़ चेतन सब कुम्हला गए है .सब आसमान की तरफ मानो टकटकी बांध कर देख रहे हो.  प्रार्थना कर रहे हो और ये कह  रहे हो की अब तो इंतिजार की इन्तिहाँ हो गयी है .

पानी की चाह सबसे आदिम चाह है .मनुष्य के इतिहास का कोई भी दिन पानी के बगैर नहीं बीता होगा .हर सुख हर दुःख का साक्षी रहा है पानी .इस तरह  पानी हमारा सबसे प्राचीन दोस्त है .........वही सृष्टि का प्राण है .जीवन तत्व है .जीने की आस है .

आंकड़े इस वक्त चाहे जो कह रहे हो पर हालात अब नाजुक मोड़ पर  पहुँच गए है .बारिश की आस अब हमें रुलाने की स्थिति में ले जा रही है .समूचा उत्तरभारत एक अघोषित  सूखे की चपेट में है .धान की अभी तक बुवाई तक नहीं हो सकी है .खरीफ की अन्य फसले भी बर्बादी की कगार पर है .देश का लगभग ४५% भूभाग ऐसा है जहाँ अभी पानी की एक बूँद भी नहीं गिरी .जमीन में दरारें पड़ने को है .किसानो की आँखों में अभी भी  अनिश्चतता के बादल मडरा रहे है .

भारत में ६०-६५% आबादी अभी भी कृषि पर निर्भर करती है .ये दीगर बात है के कुछ चेत्रो में ये निर्भरता कम हुयी है ,पर बहुसंख्यक किसान अभी भी मानसून की बाट  जोहते है .खेती की पैदावार काफी कुछ मानसून के समय से आने पर निर्भर करती  है .देरी से या कम मात्रा  में होने वाली बारिश खेती के लिए तमाम संकट खड़े कर देती है .जाहिर है की ऐसे में पैदावार घटती है जिसका सीधा असर अर्थवयवस्था  पर पड़ता है .सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ता है.

अभी कृषि मंत्री ने एक बयां जारी किया है की देश में सूखे की स्थिति भले ही हो पर इससे निपटने के लिए हमारे पास अनाज के पर्याप्त भण्डार है .ये एक तरह से जले पर नमक छिड़कने जैसा है .सरकारी भण्डार गृहों में अनाज की जो दुर्दशा है ,वो किसी से छुपा नहीं है .भंडार गृहों में जितना अनाज रख रखाव की अव्यवस्था के कारण बर्बाद हो जाता है ,अगर वही सार्वजानिक वितरण प्रणाली के तहत आम लोगो तक आसानी से पहुँच जाये तो शायद आम आदमी में भोजन को ले कर इतनी असुरक्षा का भाव न रहे .

बहर हाल आम आदमी इस वक्त दोहरी मार झेल रहा है -एक तो बेतहाशा बढ़ रही महंगाई और दूसरे मानसून की बेरुखी . .......उधर हमारी सरकार के करता धर्ता राष्ट्रपति चुनाव  में व्यस्त है या फिर नक्सलिओं  के नाम पर मासूम आदिवासियों की हत्या करवाने में .









अब ब्रह्माण्ड के राज से उठेगा पर्दा

दुनिया भर के भौतिक वैज्ञानिको ने एक बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल की है .गाड  पार्टिकल की खोज एक ऐतिहासिक घटना है ,ठीक उसी तरह जैसे चेचक के टीके ,बल्ब और इन्टरनेट के खोज की घटना थी .पर शायद यह खोज इन सबसे बढ़ कर साबित हो क्योंकि गाड  पार्टिकल की अवधारणा सीधे सृष्टि की उत्पत्ति के सवाल से जुडती है .यह खोज विज्ञान  और अध्यात्म की दूरियों को कुछ कम कर देने वाला भी साबित होगा ,ऐसा लगता है .बहरहाल अभी तो ये शुरुवाती सफलता है .ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के सवाल को सुलझाने में थोडा वक्त तो लगेगा ही .पर यह सफलता उस प्रयास की सही दिशा की तरफ इशारा जरूर करती है ,जिस दिशा में जाने से ये गुत्थी  सुलझ सकेगी .

गाडपार्टिकल या हिग्स  बोसोन की अवधारणा ब्रिटिश भौतिक शास्त्री पीटर हिग्स की है जो बोस -आइन्स्टीन के स्टेतिस्तिकल फिजिक्स पर आधारित है .भारतीय वैज्ञानिक बोस और ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्स के नामों के आधार पर ही इस पार्टिकल का नाम हिग्स बोसोन रखा गया था . यह कण सिंगल टॉप क्वार्क के सामान एक आदि मूल कण है जो पदार्थ के आकार प्रकार के लिए जिम्मेदार होता है .साथ ही पदार्थ में भार होने का कारण भी हिग्स बोसोन को ही माना जाता है  लगभग ५ दशको से भौतिकी के क्षेत्र में रहस्य रहे इस कण की गुत्थी पिछले दिनों सुलझ चुकी है .वैज्ञानिको ने हिग्स बोसोन जैसे कणों  के होने की पुष्टि कर दी है .इस सफलता के बाद ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का रहस्य भी जल्दी ही सामने आ सकेगा .यह कण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से सम्बंधित बिग बैंग थ्योरी की सार्थकता को भी प्रमाडित  करता है .

उम्मीद की जा रही है की यह खोज भारतीय तत्व चिंतन के लिए वैज्ञानिक साक्ष्य का काम करेगा .हमारी चिंतन प्रणाली कण कण में ईश्वरके होने की बात करती है .गाड पार्टिकल की खोज इस तथ्य के लिए एक साक्ष्य का कार्य करेगी

वैसे यह अवसर भारतीय वैज्ञानिकों  के लिए दोहरी खुशी  का है .जहाँ इस प्रयोग का आधार तैयार करने में भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस की  महत्वपूर्ण भूमिका  थी  ,वही इस प्रयोग को जारी रखने में २०० से अधिक भारतीय वैज्ञनिक अपना योगदान दे रहे है .इस प्रयोग के दौरान उपयोग में लायी गयी लाखों चिपों का निर्माण भी एक भारिय फर्म  द्वारा चंडीगढ़ में किया गया .भारतीय मेधा ने एक बार फिर सराहनीय प्रदर्शन किया है .

हम इस मिशन में लगे सभी वैज्ञानिको के अथक परिश्रम को नमन करते है और भविष्य में इस प्रयोग की सफलता की कामना करते है

रविवार, 1 जुलाई 2012

चिकित्सकों के बंधे हाथ

अभी हाईकोर्ट का एक फैसला आया है जिसमे ये कहा गया है की आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक  डॉक्टर एलोपैथ की दवाएं अपने मरीजो को नहीं लिख सकेंगे .ये निर्णय तकनिकी रूप से बिलकुल सही है ,पर इसके कुछ दूरगामी दुष्परिणाम भी हो सकते है .भारत जैसे देश में जहाँ शिक्षा  और स्वास्थ्य सेवाएँ बदहाली की स्थिति में है ,वहाँ  ऐसे आदेश जनहित में तो नहीं ही कहे जा सकते .

भारत में ऐसे इलाकों की कमी नहीं  है ,जो बुनियादी नागरिक सुविधाओं से अभी भी वंचित है .बीमारू राज्यों की स्थिति तो और भी ख़राब है .पिछली   कुछ पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार  के सतत प्रयास के चलते शिक्षा के हालात जरूर सुधारें है पर स्वास्थ्य सुविधाओ की उपलब्धता बहुत कम है .कई इलाकों में तो मामूली बुखार होने पर  एक पैरासिटामाल की टैबलेट मिलने की सम्भावना नहीं होती है .किसी गंभीर बीमारी की स्थिति में मीलों पैदल जाने पर सरकारी अस्पताल के दर्शन होते है .इसके बाद भी ये जरूरी नहीं की वहां डाक्टर भी मौजूद हो ,और जरूरी चिकत्सकीय सुविधाएँ भी .

ऐसे हालत में उस व्यक्ति की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है जो एक पिछड़े इलाके के मरीज को प्राथमिक  चिकित्सकीय सुविधा मुहैया कराता है भले  ही वो कम पढ़ लिखा या अप्रशिक्षित ही क्यों न हो .अभी कुछ दिनों पहले ये खबर आई थी की भारत के पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रो में ,जहाँ पर्याप्त सुविधाएँ नहीं है ,ऐसे झोलाछाप या अप्रशिक्षित लोगो को कुछ प्रशिक्षण दे कर मेडिकल प्रेक्टिस का लाइसेंस दे दिया जाये .अगर ऐसा हो पाये  तो हालत जरूर थोड़े बेहतर हो सकेंगे  .

हमारे देश में एलोपैथ डाक्टरों की संख्या और एलोपैथ दवाओं की उपलब्धता में भारी अंतर है .डाक्टर जहाँ बेहद कम है वही दवाएँ  बहुत अधिक मात्रा  में.होम्योपैथ और आयुर्वेदिक दवाओं  की उपलब्धता तो बड़े बड़े महानगरों तक में बेहद  सीमित है .ऐसे में अन्य डाक्टरों की यह मजबूरी बन जाती है की वो अपने मरीजों को एलोपैथ की दवाए ही लेने की सलाह दे .हमारे आसपास ऐसे कई डाक्टर है जिनकी पढाई होम्योपैथिक या आयुर्वेदिक  पद्धति की है पर उनकी  दवाएँ  एलोपैथिक होती  है . इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए जादा अच्छा तो ये होता की इन डाक्टरों के अनुभव और ज्ञान के आधार पर  इन्हें एक विशेष प्रकार का लाइसेंस जारी किया जाये ,जिससे दूर दराज के  ग्रामीण इलाकों की जनता को जीवनरक्षक सेवाएँ मिलती  रहे .

जिस तरह सर्वशिक्षा अभियान में  अप्रशिक्षित अध्यापको की नियुक्ति करके साक्षरता के आंकड़े में काफी हद तक सुधार किया जा सका ,उसी तरह देश में स्वास्थ्य सेवाओं  को बेहतर बनाने के लिए ये आवश्यक है की इस सेवा से जुड़े अप्रशिक्षित  लोगो को जरूरी प्रशिक्षण दे कर उन्हें एक नियमबद्ध लाइसेंस जारी कर दिया जाए .इस तरह वो सरकारी नियम क़ानून के दायरे में भी रहेंगे और नागरिकों के लिए हर जगह प्राथमिक चिकित्सा की सुविधाएँ   भी उपलब्ध रहेंगी .




गुरुवार, 28 जून 2012

पाकिस्तान का यू -टर्न

पाकिस्तान ने एक बार फिर इतिहास को दुहरा दिया .वैसे ये पाकिस्तान के चरित्र के अनुरूप ही  है पर सरबजीत के परिवार के लिए तो ये घटना एक भद्दा मजाक बन कर रह गयी है .साथ ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में पकिस्तान की जो किरकिरी हो रही है वो अलग . सरबजीत का परिवार वर्षो से यह लड़ाई लड़ रहा है ,कई मानवाधिकार कार्यकर्ता भी उनके साथ है ,पर इस घटनाक्रम के बाद तो सबकी आस धुंधली  नजर आने लगी है .

सरबजीत को सन 1990 में पाकिस्तान में हुए चार बम धमाकों के अभियुक्त के रूप में मंजीत सिंह के नाम से गिरफ्तार किया गया था .1991 में पकिस्तान की निचली अदालत ने सरबजीत उर्फ़ मंजीत सिंह को मौत की सजा सुनाई .जिसे हाईकोर्ट और फिर सुप्रीमकोर्ट ने बहाल  रखा .सरबजीत के मुताबिक वो एक निर्दोष किसान है जो गलती से पाक सीमा में घुस गया था .सरबजीत के परिवार ,उनके वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के द्वारा दया की कई अपीलें की गई ,पर स्थिति ज्यो की त्यों रही .

पाकिस्तानी सरकार ने सारे कयासों को झुठलाते  हुए इस बात को साफ़ तौर  पर कहा है की सरबजीत की सजा में कोई कमी नहीं की गयी है ,न ही राष्ट्रपति जरदारी ने सरबजीत की रिहाई का फैसला लिया है .इस सम्बन्ध में पाकिस्तान सरकार का तर्क है की सरबजीत अपने बयान  में अपना अपराध बहुत पहले कबूल कर चुका   है .

अगर ये बाते सच भी हो तो सवाल ये है की सरबजीत के  परिजनों के साथ ये  मजाक क्यों किया गया ,मीडिया और भारत सरकार को क्यों गुमराह किया गया .अपनी सफाई में पाकिस्तान अब चाहे  जो कह रहा हो पर ये मामला वहाँ की सरकार  की स्वायत्तता पर एक सवालिया निशान जरूर खड़ा करता है .पाकिस्तान सरकार के  असली हुक्मरान कोई और ही है ,जो संसद से बाहर  बैठ कर सरकार के फैसलों और नीतियों को प्रभावित करते है .पाकिस्तान में कट्टरपंथी ताकतों का सदा से बोल बाला रहा है .अब उसमे एक नाम और जुड़ गया है -आई एस आई का. सेना भी सरकारी कामकाज में पर्याप्त दखल और दिलचस्पी रखती है .सरकार की असली  नकेल इन्ही के हाथो में होती है .

इसमें जरा भी हैरानी नहीं होनी चाहिए की जब पाकिस्तान सरकार ने सरबजीत की रिहाई के फैसले को मीडिया के सामने पेश किया तो ये ताकते खुल कर विरोध में आ गई ,और नतीजा ये कि  सरकार को अगले 6 घंटे में ही अपना फैसला बदलना पड़ा और बोलने में लगभग एक जैसे नाम वाले उस भारतीय कैदी की रिहाई की घोषणा  करनी पड़ी ,जिसकी सजा 2004 में ही पूरी हो गई थी.

पकिस्तान ने उग्र राष्ट्रवाद की एक और मिसाल पेश की है .वहाँ की कुछ नियामक गैर सरकारी संस्थायों ने राजनीती और विदेशनीति में मानवीय पक्ष को एक बार फिर  दरकिनार किया है .





रविवार, 24 जून 2012

मृत्युं शरणम् गच्छामि

 सन २००४ में रान   ब्राउन की एक किताब आई थी -दी आर्ट आफ सुसाइड .अपने समय की बेस्ट सेलर रही यह किताब आत्महत्या के पूरे  वैश्विक इतिहास का लेखा जोखा प्रस्तुत करती है .आत्महत्या का दर्शन सभ्यता के बिभिन्न चरणों में कब और कैसे बदला ,इस किताब में बड़ी बेबाकी से दर्ज हुआ है .कई प्राचीन सभ्यताओं में आत्महत्या को अनैतिक या अपराधिक प्रयास नहीं माना  जाता था .किताब के मुताबिक ऐसा क्रिश्चियनिती के उदय से पहले था .प्राचीन ग्रीस और रोम इसके उदाहरण है जहाँ आत्महत्या करने वाले की किसी हीरो की तरह पूजा की जाती थी .उनकी प्रतिमाएं स्थापित की जाती थी और उनके नाम पर उत्सव होते थे .

आधुनिक योरोपीय दर्शन में कुछ ऐसे विचारक भी हुए है जिन्होंने "मरने की स्वाधीनता (right to die)" की भरपूर वकालत की है .नीत्शे ,डेविड ह्युम ,जेकब एपल कुछ ऐसे ही विचारक थे .ये नास्तिक विचारधारा का चरम था जो हर प्रकार की नैतिकता को स्थगित करने की सलाह देता था .

पर आज ,स्थिति बिलकुल ही भिन्न है .कोई भी धर्म या राज्य हमें आत्म हत्या की इजाजत नहीं देता है .आत्महत्या एक अपराध है ठीक उसी तरह जैसे किसी और की हत्या करना .भारतीय कानून में तो  दोनों अपराधों के लिए एक सामान धाराएँ सुनिश्चित की गई है .

आज वैश्विक स्तर  पर आत्महत्या के प्रति एक नकार का भाव है .यह निश्चित रूप से कायरता है ,जीवन से पलायन है और ईश्वर  से मिले एक खूबसूरत तोहफे का अपमान भी .....हमारी सोच और माहोल  दोनों में पर्याप्त बदलाव आया है ,पर अफ़सोस तो इस बात का है की आत्महत्या की घटनाएँ धडल्ले से हो रही है .कारण जो भी हो .

अभी अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल असोसिएसन  की एक रिपोर्ट  आयी  है आत्महत्या को ले कर .इस अध्ययन में पाया गया है की विकासशील देशो में आत्महत्या की घटनाएँ तेजी से बढ़ रही है .आत्महत्या की घटनाएँ भी इन्ही देशो में सबसे ज्यादा हो रही है .सन २०१० में आत्महत्या की १.८७ लाख घटनाये केवल भारत में हुई है .चीन में यह संख्या कोई २ लाख के आस पास बताई गई है .
यह अध्ययन कई चोंकाने वाले नतीजे पेश करता है .आत्महत्या में सबसे जादा भागीदारी पढ़े लिखे ,महानगरीय ,संपन्न नोजवानो की है .दक्षिण भारत के राज्यों तमिलनाडु ,आंध्र प्रदेश ,कर्णाटक और केरल में इन घटनाओ की तादाद सबसे जादा है .आत्महत्या करनेवालों में वो लोग सबसे जादा शामिल है जिनकी उम्र १५-२९ वर्ष है .

आज का मघ्यवर्गीय युवा संभवतः  इतिहास के सर्वाधिक दबाव वाले युग में जी रहा है .सुखी संपन्न होने की आकांक्षा आज बहुत तीव्र हो चुकी है .परिवार ,समाज करियर और प्रेम उन्हें लगातार तनावग्रस्त बना रहा है .उनका समायोजन गड़बड़ा रहा है.वो जल्दी ही अल्कोहलिज्म और ड्रग एडिक्सन  की गिरफ्त में चले जाते है .पर यह प्रवृति उनके लिए खतरनाक साबित होती है .जानकार  तो साफ कहते है की भारतीय युवाओ में आत्महत्या का मुख्य कारण है -अवसाद ,अल्कोहल और दृग्स  .पर इन सबके पीछे होता है उनके जीवन में मैनेजमेंट का अभाव .

यदि महिलाओं की बात करे तो आत्महत्या करने में उनका प्रतिशत पुरुषों से कही जादा है ,पर कारण बिलकुल भिन्न है .रिपोर्ट के मुताबिक विधवा ,तलाकशुदा या अकेली महिलाओं में ये प्रवृति अधिक पाई जाती है .क्योंकि उनमे अवसादग्रस्त होने की संभावना अधिक रहती है

वैसे भी हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य  के प्रति जागरूकता का पर्याप्त अभाव है .आज भी देश में कुछ गिने चुने मनोचिकित्सक  और उनके काउंसलिंग सेंटर है .आज की तेज रफ़्तार जिंदगी में यह हमारा खुद का दायित्व बनता है की हम अपने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य  दोनों की समुचित देखभाल करें .बच्चों को भी इसके प्रति जागरूक बनायें .उनमे स्वस्थ आदतों का विकास होने दें .उन्हें जीवन की सुन्दरता ,निरंतरता और अनिवार्यता का बोध कराएँ .

इसी क्रम में स्कूलों और कालेजो में समय समय पर युवाओं  के काउंसलिंग की व्यवस्था  होनी चाहिए .ठीक उसी तरह जैसे डांस ,म्युजिक  और योगा क्लासेज होती है .नहीं तो हमें इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से हमेसा दो चार होना ही पड़ेगा .आज जब हम अर्थवयवस्था में विकास के नए नए लक्ष्य निर्धारित कर रहे है ,तो यह आवश्यक हो जाता है की हम अपने बेशकीमती ,युवा और ऊर्जावान  मानव संसाधन को यूँ  ही बर्बाद न होने दे .

गुरुवार, 21 जून 2012

एक रिहाई ऐसी भी

आत्मनिर्वासन किसी व्यक्ति के जीवन में एक बड़ी त्रासदी है .स्वयं से विमोह ,जीवन से विराग ,संवादहीनता और भी न जाने कितने दुःख झेलने के बाद ऐसे स्थिति आती होगी .

ऐसे में व्यक्ति अपनी छोटी सी दुनिया को एक कैदखाने में बदल लेता है .अपने ही घर की दीवारें उसके लिए जेल की दीवारें बन जाती है ,जिसमे वह एक काल्पनिक जुर्म की सजा भोगने लगता है .दिनचर्या की सामान्य क्रियाओं में भी उसकी रूचि ख़त्म हो जाती है. भोजन और जल तक से दूर चला जाता है वह ...यह आत्मपीडा और अवसाद  का चरम होता है .

अभी एक खबर पढने को मिली .रोहणी दिल्ली की .जहाँ दो बहनें कुछ महीनो से ऐसी ही स्थितियों से गुजर रही थीं .वो लगातार भुखमरी की स्थिति से गुजरते हुए मरणासन्न स्थिति में पहुच गई थी.
.एक रिश्तेदार की दखल पे उन्हें अपने ही घर की कैद से मुक्त कराया गया .दोनों बहनों ,ममता और नीरजा का शरीर बेहद जर्जर हो चुका था किसी तरह उन्हें एम्बुलेंस में चढ़ाया गया था .एक साल हुए नोयडा से भी एक ऐसी ही खबर आई थी ,जहाँ दो बहनों को इसी तरह की कैद से आजाद कराया गया था

ये घटनाएँ शहरी जीवन की सीमाओं की ओर संकेत करती हैं. आपाधापी ,मारामारी और भागदौड़ से भरी आज  की जीवनशैली में अगर हम खुद को जरा भी अनफिट पाते  है तो स्वयं को ही नष्ट करने में जुट जाते हैं .यह आश्चर्यजनक है की महानगर में रहने वाली ,पढ़ी लिखी और पूर्णतया वयस्क दो लड़कियों ने मुश्किलों का सामना करने के बजाय ये रास्ता चुना .

फिर भी ये घटनाएँ एक सवाल पीछे छोड़ जाती है की उन परिस्थितियों का निर्माता को   है ,जो दो लड़कियों को सम्मान से ,निडर होकर जीने नहीं देता ?कोन  है वो खलनायक  जो उन्हें तिल -तिल कर मार रहा था ?

यह सवाल एक गहन समाजशास्त्रीय  विश्लेषण की मांग करता  है .साथ ही हमारी  पारिवारिक ,सामाजिक और राजनीतिक प्रणाली की यांत्रिकता, संवेदनहीनता और संवादहीनता  पर  ऊँगली  भी उठता है

रविवार, 17 जून 2012

सारा आकाश

जून के दूसरे  हफ्ते में अखबारों में दो ख़बरें बड़ी आम होती है ,एक तो मानसून के आने या न आने की खबर और दूसरी ,बोर्ड परीक्षाओं के टापर  की ख़बरें .अभी स्थिति ये है की मानसून से जुडी ख़बरें आ रही है और टापर  से जुडी ख़बरें आ चुकी है .पर इनमे जो खबर लम्बे समय तक याद रहने वाली है वो है दिव्या की.
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दिव्या चेन्नई की रहने वाली है और उसने हाईस्कूल के एक्जाम में लगभग 86% अंक हासिल किए है.

दिव्या का कहीं कोई घर नहीं है .उसके माँ बाप भी नहीं है . वो फुटपाथ पर रहती है अपने छोटे भाई बहनों और दादी के साथ .

हम जिन तकलीफों और प्रयासों की कल्पना भी नहीं कर सकते ,वो सब दिव्या ने अपनी पढाई जारी रखने के लिए सहे और किये है .दिव्या ने स्ट्रीट लैम्प  की रोशनी में देर रात तक जग कर पढाई की है .दिव्या ने आँधी  तूफ़ान में अपनी किताबो को बड़े जतन से  बचाया है .उसने शराबियों ,गुंडों और तमाम असामाजिक तत्वों से लड़कर पढने के लिए सुकून तलाशा है .उसने खुले आकाश के नीचे मोटर गाड़ियों के शोर शराबे में एक कठोर साधक की तरह अपना ध्यान स्थिर रखा है .तमाम व्यंग और ताने सुने है उसने. .....पर दिव्या ने वो कर दिखाया जो तमाम  सुख सुविधाओं में पलने वाले बच्चे अक्सर नहीं कर पाते .

ऐसा नहीं है की दिव्या का  साहस  कभी डगमगाया न हो .वो कई बार टूट टूट कर सम्हली है .बिखर बिखर कर समेटा सहेजा है खुद को.एक समय तो ऐसा भी आया था जब दिव्या  ने ये फैसला किया की अब वो पढाई नहीं कर पायेगी  .पर उसके स्कूल के एक टीचर ने फिर से उसकी हिम्मत बढाई  .लड़ाई तो सारी  दिव्या ने खुद लड़ी ,पर उसके टीचर एक तिनके के सहारे के रूप में उसके साथ रहे .

दिव्या ने ये सब कुछ किया  किसी पारिवारिक ,सरकारी या गैरसरकारी मदद के बिना  .उसके  व्यक्तिगत साहस ,जुझारूपन और जूनून ने उसे आज ये सफलता दिलाई .दिव्या आज उन लोगों के लिए मिसाल बन गई है है जो विपरीत परिस्थितियों से समझोता कर लेते है और अपने लक्ष्य से भटक जाते है .

सच ही है जिनके सिर पर छत  नहीं होती  , उनका सारा आकाश होता है .








  • फोटो -THE HINDU से साभार 
  • "सारा आकाश " वरिष्ठ लेखक राजेंद्र यादव का मशहूर उपन्यास है .

बुधवार, 13 जून 2012

(अ )ज्ञानपीठ के कारनामे

देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था इस वक्त विवादों में है .वैसे यह पहली बार नहीं है जब ज्ञानपीठ की कार्यशैली और वयवहार शैली पर उँगलियाँ उठी हो .इससे पहले भी दो- तीन मामले साहित्यिक हलकों में चर्चा के विषय बने और संस्थान  की खूब फजीहत हुई .नया ज्ञानोदय में छपे एक इंटरव्यू से उपजा विवाद इतना गहरा गया कि राष्ट्रपति तक को पत्र लिख कर शिकायत भेजी गयी .ध्यान रहे भारत का राष्ट्रपति संस्थान का प्रधान ट्रस्टी होता है .
भारतीय ज्ञानपीठ के पिछले इतिहास को उठा कर देखे तो ऐसे विवादों के लिए कोई गुंजाइश  नजर नहीं आती है .ज्ञानपीठ के प्रकाशन ,दिए जाने वाले पुरस्कार हमेशा निर्विवादित होते थे .पर आज जो मामला सड़क पर है उससे तो यही लगता है की भारतीय ज्ञानपीठ की कार्य शैली में परिवर्तन ही नहीं बल्कि गिरावट आई है , संस्थान की प्रतिष्ठा खतरे में पड़  गयी है .जो मामला इस वक्त चर्चा में है वो है युवालेखक गोरव सोलंकी का .सोलंकी ने विलम्ब की वजह से अपनी पांडुलिपियाँ  ,कई बार इग्नोर किये जाने और अपमानित होने के बाद ,वापस माँगा ली है .अपने पुराने संबंधों को तिलांजलि देते हुए उन्होंने ज्ञानपीठ के निदेशक के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया है .सोलंकी के इस साहस  पूर्ण कदम के बाद कई और पीड़ित और सताए हुए जन सामने आए है ,जो शायद अकेले इस संसथान से मोर्चा नहीं लेना चाहते थे .पर अब तो" साथी हाथ बढ़ाना " जैसी स्थिति हो गयी है .वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने भी अपने मोहभंग को सार्वजानिक कर दिया है .
ज्ञानपीठ के पतन की शुरुवात तबसे हुई जब संस्थान  के वर्तमान निदेशक ने पदभार ग्रहण किया ,तभी से ज्ञान पीठ के लम्पटीकरण का प्रारंभ हुआ .यह आपसी खुन्नस निकलने ,कृपापात्रों  को उपकृत करने और परस्पर पीठ खुजाने का अड्डा बन गया .आज आलम यह है की ज्ञानपीठ द्वारा संचालित कई महत्वाकांक्षी  योजनाये संदेह के दायरे में आ गयी है .
फिलहाल उम्मीद यही की जा सकती है की भारतीय ज्ञानपीठ  इस संकट से जल्द ही उबरेगा और अपनी प्रतिष्ठा  और गरिमा को पुनः स्थापित कर सकेगा








अबके हम बिछड़े तो ....

न कोई आहट न कोई हलचल ,बहुत ख़ामोशी से विदा हो लिए मेहँदी हसन साहब , अरसे की बीमारी और मुफलिसी झेलने के बाद ..........पर संगीत की दुनिया के  वो शहंशाह थे ,ग़ज़ल सम्राट थे , एक जीवित किवदंती थे और एक नर्म ,नाजुक और बेहद मीठी आवाज वाले फनकार .पर अफ़सोस कि वो आवाज अब थम सी गई है .......हालाँकि यह लिखते हुए खुद ही यकीन नहीं हो रहा है,  कही से न जाने क्यों लग रहा है कि यह खबर झूठी है .
मेहँदी हसन साहब के जाने से संगीत की दुनिया में जो शून्य बन गया है,वह फिर न भरा  जायेगा .महफ़िलों में वह रेशमी आवाज फिर न गूंजेगी .ग़ज़ल की सल्तनत आज मानो  लावारिस हो गई है .ग़ज़ल की  दुनिया का  दैदीप्यमान सितारा आज सितारों की दुनिया का नागरिक हो चुका  है ,करोड़ो लोगो के चेहरे पे मायूसी थिरक रही है ,साज खामोश है और महफ़िलें तो जैसे  वीरान हो गई  है .
मेहँदी हसन ने ग़ज़ल गायकी को जिस मुकाम तक पहुँचाया ,वो एक न भूलने वाला इतिहास बन चुका है . उन्होंने पाकिस्तानी फिल्म संगीत को भी नए आयाम दिए .अपनी आवाज की बुलंदियों से उसे भी नवाजा .पर उनकी महानता  के असली मायने तो हमें गजल गायकी में ही देखने को मिलते है .ईश्वर के इस नेक बन्दे ने अपना पूरा जीवन संगीत को अर्पित कर दिया ,और  करोड़ो चाहने वालों के दिलो दिमाग में हमेशा के लिए बस गए .अपनी जिंदगी में भारत और पाकिस्तान की अवाम का जो प्यार, सम्मान और अपनापन उन्हें नसीब हुआ वह दुर्लभ है .
थोडा सा दुःख इस बात का जरूर होता है की अपने आखिरी दिनों में वो थोड़े अलग थलग से पड़  गए थे .कई बार खबरे आयी कि पैसों  के आभाव के चलते उनका इलाज ठीक से नहीं हो पाया .पाकिस्तानी सरकार  के प्रयासों में भी थोड़ी कमी दिखी .हमारे देश के कुछ कलाकारों ने उन्हें भारत बुला कर उनके इलाज की पेशकश की ,तो वो भी ठुकरा दी गयी .शायद एक महान कलाकार की यही नियति होती है .इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है .
पर तमाम सियासी बाधाओं ,अडचनों ,और सीमाओं को लाँघ कर उनकी आवाज हमारे कानों में सदा बरसती रहेगी .और हमारी जिंदगी को जादा खूबसूरत और जीने लायक बनाती  रहेगी .........फिलहाल ये वक्त है अपनी नम  आँखों को पोछने का .
 अलविदा .......! शाह -ए -ग़ज़ल .




सोमवार, 11 जून 2012

......और अब राधे माँ

निर्मल बाबा के बाद अब राधे माँ चर्चा में है .निर्मल बाबा की तरह   राधे माँ की कहानी भी  एक सामान्य शख्स के भगवान बनने की कहानी है .आज राधे माँ के लाखों भक्त है जो उनके लिए पलक पावड़े बिछाये रहते है .बालीवुड की कई हस्तियाँ भी उनकी मुरीद है .पंजाब के एक छोटे से शहर होशियार पुर के एक मध्यवर्गीय परिवार  में  रहने वाली राधे माँ अज करोड़ो की संपत्ति की  है .बिना कोई ट्रस्ट बनाये उन्होंने करोड़ो की निजी संपत्ति बना ली है .राधे माँ सरकार को इनकम टैक्स भी नहीं देती है ,फिर  तो उनकी  सारी कमाई' काली कमाई "कही जाएगी .
राधे माँ का केस भी निर्मल   बाबा की तरह अतार्किक श्रद्धा ,अंध भक्ति और चमत्कारों के प्रति गहन आस्था का मामला है .
इधर जो मामले प्रकाश में आ रहे है उन्हें देख कर तो यही लगता है कि जैसे व्यक्ति पूजा में हम कोई रिकार्ड बनाने वाले है .व्यक्ति पूजा की दुर्लभ परंपरा हमे देश में सदियों से फल फूल रही है .बाबा संस्कृति हर युग में पनपी और परवान चढ़ी .यह एक तरह से हमारा सांस्कृतिक और बौधिक पिछड़ापन है .हम चमत्कार झड फूंक और जादू टोनों  की दुनिया में अब भी जी रहे है .ताज्जुब होता है की जहा एक वोर हम ज्ञान  विज्ञानं और तकनिकी में दिन रात नए नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे है वही दूरी वोर अंधविश्वास की  में दुबकी भी लगा रहे है .
यह विज्ञापन और मार्केटिंग का युग है .प्रचार प्रसार और नेटवर्किंग के सहारे आज बाबागिरी एक धधा बन गया है .





सचिन बने सांसद

संचिन का  सांसद बनना एक अच्छी खबर है या बुरी खबर ये तय  कर पाना थोडा मुश्किल है .यह सचिन के तमाम प्रसंशको के लिए एक खुशखबरी जरूर होगी पर इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है जो कुछ अलग ही संकेत दे रहा है.
सचिन एक दिग्गज खिलाडी है जो लगातार सुर्ख़ियों में बने रहते  है.जब वो अच्छा  खेलते है तब और जब नहीं खेलते है तब भी .उनके करोडो फैन उन्हें सिर  आँखों पर बिठाये रखते है .उनको सांसद बना कर जैसे सरकार ने स्वयं को ही उपकृत किया है .साथ ही इस होहल्ले में वह अपनी खामियों को छुपा लेना चाहती है . जहाँ सरकार तमाम बुनियादी सवालों से मुह फेर रही है ,उनसे बचने की कोशिश कर रही है ,वहीँ  वो सचिन को सांसद बना कर और एक नए विवाद को जन्म दे कर जनता को गुमराह करने की कोशिश कर रही है .
सचिन को राज्यसभा में मनोनीत कर के सरकार  ने किसी सद्भावना का परिचय नहीं दिया है .दरअसल वो सचिन के चमचमाते चेहरे के पीछे खुद को छुपाना चाहती है .यहाँ कुछ प्रश्न है जिनका जवाब सरकार   से मिलना ही चाहिए .
पहला सवाल है कैसे ?सचिन को किस आधार पर राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया ?राष्ट्रपति द्वारा जो 12 प्रख्यात व्यक्ति राज्यसभा के लिए मनोनीत किये जाते है उनके कार्य क्षेत्र  या विशेषज्ञता  क्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख संविधान में किया गया है .ये क्षेत्र . है -साहित्य ,कला ,विज्ञानं और समाजसेवा . खेल का कही कोई जिक्र नहीं किया गया है ऐसे में हमारी सरकार  को यह बताना चाहिए की महान  सचिन तेंदुलकर का योगदान इनमे से किस श्रेणी में आता  है .
दूसरा प्रश्न है सचिन ही क्यों ?यह सच है की सचिन एक सर्वाधिक लोकप्रिय समकालीन खिलाडी है पर हमारे देश में दिग्गज खिलाडियों की एक लम्बी फेहरिश्त  है .अगर क्रिकेट की ही बात करे तो ऐसे कई खिलाडी है जिनका चयन किया जा सकता था .पर हमारी सर्कार  तो जैसे उनका नाम तक नहीं जानती .यह विडम्बना ही कही जाएगी   की देश को अपनी कप्तानी में पहली बार विश्व कप दिलाने वाले कपिल देव के प्रति अक्सर सौतेला व्यवहार किया जाता है .कई ऐसे मौके आए  जब सार्वजनिक रूप से उनकी उपेक्षा की गई .अभी ताजा  मामला आई . पी .एल -6 का है जब देश के टेस्ट क्रिकेटरों को सम्मानित किया गया और कपिल देव को इस सम्मान के काबिल नहीं समझा गया.यह क्रिकेट की ग्लेमरस  दुनिया की एक काली  तस्वीर है .
इन सारी  बातो के मद्देनजर सरकार  द्वारा सचिन को लगातार उपकृत करते रहना समझ से परे है .........

 
















 

रविवार, 10 जून 2012

सत्यमेव जयते

आमिर  का शो अपने पहले ही एपिसोड से काफी लोकप्रिय हो चुका है .हिंदी चैनलों पर आने वाले तमाम रिअलिटी शोज से यह बिलकुल अलग   है .इस शो कि विषय वस्तु ,दृष्टि ,प्रस्तुति  और उद्देश्य सब हट के है .आमिर ने पहले एपिसोड में  कहा था की वो देश में  बदलाव  के सहयोगी  बनना चाहते   है .उनकी यह मंशा अब तक के सारे एपिसोड में साफ नजर आती है  .अपने शो में आमिर एक एक्टिविस्ट  की भूमिका में नजर आते है .बहुत जादा लाउड हुए बिना  वो समस्या की पूरी बारीकी से, कुशलतापूर्वक और कलात्मक ढंग से बखिया उधेड़ते है . यह शो आमिर की  सोच और उनके व्यक्तित्व की एक भिन्न छवि प्रस्तुत करता है .जहाँ एक ओर उनके समकालीन सिर्फ  तेल साबुन बेचने की होड़ में लगे है ,तो ऐसे में आमिर की यह कोशिश सराहनीय है .दूसरे  ढंग से कहे तो यह उनकी लोकप्रियता और मीडिया का सही इस्तेमाल है 
इस शो की टी .आर .पी ,मार्केटिंग और मुनाफे से जुड़े पहलुओं पर जरूर काफी शोध किया गया होगा और अब भी किया जा रहा होगा ,पर इन सब के बावजूद इस शो की अद्वितीयता से हम  इंकार नहीं कर सकते .इस शो में ऐसा बहुत कुछ है जो आमिर को और इस शो को अलग कतार  में खड़ा करता है .यह शो समाज के दमित ,अनछुए ,अचर्चित और बोल्ड विषयों को अपना लक्ष्य बनाता है .यह स्त्री ,बच्चो विकलांगो और प्रेम की बात करता है .हमें उन शर्मनाक सच्चाइयों से रूबरू कराता है जिनके या तो हम भुक्तभोगी है या फिर मूकदर्शक .ये हमें जिंदगी के ऐसे अँधेरे कोनो की सैर कराता है जहाँ हम जाने से घबराते है .यह हमारे सभ्य होने  की विशद पड़ताल करता है .हमें हमारे अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत करता है .
आमिर के शो के केंद्र में मनुष्य है और मनुष्यता भी .जीवन की बेहतरी का एक इमानदार स्वप्न है यहाँ जो हम रोज देखते है .

शनिवार, 9 जून 2012

एक और शिगूफा





कपिल सिब्बल साहब एक और दूर की कोड़ी  खोज कर लाये है कि -देश  के शिक्षक पर्याप्त शिक्षित नहीं  है .सिब्बल साहब ने जो तीर  छोड़ा है वह घूम कर उन्ही को निशाना बना रहा है .यह बात जरूर सही हो सकती है की देश में योग्य शिक्षको  का अभाव है या  वो  लोग शिक्षक के रूप में कार्य   कर रहे है जिनमे शिक्षण अभिरुचि है ही नहीं .पर ये प्रश्न अंततः मानव संसाधन विकास मंत्री जैसे जिम्मेदार व्यक्ति  को ही कटघरे  में खड़ा करते है .जिन  एक आध प्रश्नों  से सिब्बल साहब रूबरू नहीं   होना चाहते वो यहाँ दिए जा रहे है -
  • शिक्षकों की योग्यता का निर्धारण जो संस्था करती है वो कपिल जी के मंत्रालय के अधीन कार्य करती है .कपिल जी  खुद भी इस  सम्बन्ध में काफी माथापच्ची कर चुके है .तो  सवाल यह है   कि  क्या उनके मंत्रालय ने योग्यता निर्धारण के सभी पहलुओं  पर विचार कर लिया है ?
  • शिक्षको की चयन प्रक्रिया  का निर्धारण भी कपिल जी के मंत्रालय की देख रेख में होता है .अभी पिछले वर्ष प्राथमिक  शिक्षको  के चयन में टी.ई .टी को अनिवार्य किया गया है, सवाल यह है की क्या टी ई टी वह  फुलप्रूफ तरीका है जिससे केवल शिक्षण अभिरुचि वाले लोग फ़िल्टर हो कर शिक्षक के रूप में चयनित होंगे ?
  • अगला और  महत्वपूर्ण प्रश्न है शिक्षण परिस्थिति को ले कर .मान  लेते है की सिब्बल साहब ने योग्य और अभिरुचि संपन्न लोगो को शिक्षक के रूप में नियुक्त   कर दिया पर  उस शिक्षक ने यह अनुभव किया की उस क्षेत्र  विशेष में शिक्षण  हेतु सहायक परिस्थितियाँ  नहीं है .अभिभावक बच्चो की पढाई में रूचि नहीं ले रहे है ,अध्यापक को गैर शैक्षिक कार्यों में लिप्त रखा  जाता है ,एक अध्यापक के बजाय  एक क्लर्क का काम  उससे लिया जाता है .ऐसे में शिक्षा  व्यवस्था  प्रभावित तो जरूर होगी .तो प्रश्न यह है की क्या सिब्बल साहब किसी ऐसी प्रणाली या  की आवश्यकता अनुभव करते है जो शिक्षको को इन व्यावहारिक कठिनाइयों से निजात दिला सके ?
 और  सिब्बल साहब क्या आप और  आपकी सरकार शिक्षक को एक आम सरकारी कर्मचारी समझना फोरन बंद नहीं कर सकती  .





















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गुरुवार, 7 जून 2012

संसद के साठ बरस

भारतीय  संसद ने अपने साठ बरस पूरे कर लिए .किसी देश के इतिहास में वैसे तो साठ वर्ष का समय बहुत कम होता है फिर भी अपनी समझ व प्रयासों को बेहतर बनाने के लिए इन साठ वर्षों का मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है .
साठ सालों में हमारी संसद ने कई उतार  चढ़ाव  देखे ,इनमे संसद पर किया गया  गया एक आतंकी हमला भी शामिल है .हमारी संसद ने कई बार गर्व से हमारा सिर  ऊँचा किया तो कई बार हम शर्म से पानी पानी भी हुए .अच्छे  व बुरे पहलू हर एक चीज के होते है .पर चूँकि संसद देश की सर्वोच संवैधानिक संस्था है ,इसलिए उससे केवल अच्छे कार्यों की अपेक्षा स्वाभाविक है
भारतीय  लोकतंत्र धीरेधीरे अपनी जड़ें  जमा रहा है .नागरिकों में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा धीरे धीरे मजबूती पा रही है .लोकतान्त्रिक संस्कारों का विकास हो रहा है .हम एक परिपक्व लोकतंत्र की  एक ओर एक एक कदम बढ़ाते जा रहे है .
पर भारतीय लोकतंत्र की कुछ कठिनाइयाँ  भी है .साथ ही अफ़सोस इस बात का है की इन कठिनाइयों  का सामना करने के लिए अपेक्षित साहस   और नैतिक बल का हममे नितांत अभाव है .हम हर बार पाकिस्तान ,बांग्लादेश ,नेपाल आदि  का हवाला दे कर बच नहीं  सकते .यह  कहने का कोई औचित्य  नहीं कि  हमारी व्यवस्था  उनसे बेहतर  है .हमारी संसदीय प्रणाली में व्याप्त कठिनाइयों  को हमें हर हाल  में दूर करना होगा .तभी हमारी गिनती अगली कतार के देशों में हो सकेगी .साथ ही हमारी संसद की गरिमा में भी चार चाँद लगेंगे .
राजनीति   में व्याप्त अपराधीकरण  ,भ्रष्टाचार ,आर्थिक असमानता,महिलाओं और बच्चों  के नागरिक अधिकारों का संरक्षण अदि कुछ ऐसे मुद्दे है जो निरंतर बहस के विषय जरूर बनते  है पर किसी अंजाम तक नहीं पहुँच पाते  .हमें इन सवालो के हल खोजने होंगे और अभी खोजने होंगे .    

कृपा का कारोबार

अभी लखनऊ में निर्मल बाबा पर एक और केस दर्ज किया गया .जो धाराएँ लगी हैं वो हैं -417,419 व 420. निर्मल बाबा  सवालों से घिरते जा रहें हैं.उनके भक्तों की संख्या में भी गिरावट दर्ज की गई है . तो जाहिर है की खाते में  आने  वाली रकम की  ग्रोथ भी कम हुई  होगी .निर्मल बाबा जब अपनी सफाई में कुछ कहते  है तो वह निरर्थक  और अनर्गल प्रलाप की तरह लगता है .मुहावरे में इसे "सिट्टी पिट्टी गुम  होना" कहा जाता  है .उनकी बातों में तार्तम्यता  का घोर आभाव नजर  आता है .उनकी बातों  में कोई आध्यत्मिक टच  भी  नहीं होता है .वो किसी आध्यात्मिक  परंपरा से जुड़े भी नहीं है .उनकी वाक्कुशलता  भी कुछ खास नहीं है, की इतने लोग उनके मायाजाल में फंस सके .उनसे बेहतर लच्छेदार  बातें तो बन्दर नचाने  वाले या बस अड्डे  पर चूरन या तेल बेचने वाले कर लेते है .निर्मल बाबा अपने भक्तों को जो उपाय बतातें  है वो भी प्रथमदृष्ट्या ऊलजलूल ही जान पड़ते है  .तो फिर सवाल ये है की निर्मल बाबा का कारोबार कैसे चल निकला  ?
दरअसल निर्मल बाबा ने देश की दुखी परेशानहाल  जनता की भावुकता  का जबदस्त दोहन किया .हम आम भारतीय नागरिको की यह मानसिकता है  कि हम परिश्रम और ईमानदारी से सुखी होने के बजाये चमत्कारों के दम पर सुखी होनाचाहते  है .हम चाहते है की मंदिर में 50 रू  का प्रसाद  चढ़ा  कर हमें 5 लाख का लाभ हो .हमारी यही मानसिकता भारतीय बाबाओं को अरबपति बना कर उन्हें भगवन की तरह पूजती है

गुरुवार, 10 मई 2012

इस रात कि सुबह

भ्रष्टाचार के जो मौजूदा मामले प्रकाश में आ रहे है वो सब चौकाने वाले है .देख कर हैरत हो रही है कि सरकारी तंत्र का हर  महकमा सर से पांव तक डूबा हुआ है .उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के तजा मामले बेचैन कर देने  वाले है .मध्य प्रदेश में तो यह बिमारी कुछ ज्यादा ही संक्रामक हो गई है .यही स्थिति रही तो पानी को सर के ऊपर जाने में अधिक समाया नहीं लगेगा .भ्रस्ताचार का रोग पूरे देश में बहुस्तरीय हो चूका है सरकारी अफसर और कर्मचारी जोर शोर से धन उगाही में लगे है .यह दृश्य मन में कुछ प्रश्नों को भी जन्म देता है ,पहला प्रश्न तो ये कि सरकारी तन्त्र को मोरल सपोर्ट कहा से मिलता है ?इन अधिकारिओं और कर्मचारियो कि हिफाजत कौन करता है ? उन परिस्थितिओं का असली   निर्माता कौन है ? ये सारे प्रश्न एक दुसरे तंत्र कि तरफ इशारा करते हैं जिन्हें भारत भाग्य विधाता होने कि जिम्मेदारी हम सब ने सौंप रक्खी है , संसदीय भाषा में इन्हें माननीय कह कर संबोधित करते हैं, असंसदीय भाषा में इनके लिए संबोधनों कि भरमार है पर उनका प्रयोग अधिक प्रचलित नहीं है
सरकारी मशीनरी के ऊपर विराजमान राजनैतिक तंत्र ही इन सब का असली रहनुमा है. देश कि अन्य नीतियों कि तरह भ्रष्टाचार कि नीतियों के निर्माता भी ये ही है
भ्रष्टाचार कि गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय इन्ही को है.
भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली छापे मारियों में सरकारी तंत्र के एक आद मुर्गे फंसते जरूर है पर अभी तक कुर्बान एक भी नहीं हैं, परन्तु इनके रहनुमा फसने और कुर्बान होने जैसी सांसारिक घटनाओं से अछूते रह जाते है, इनके इर्द गिर्द मौजूद  संवैधानिक अड्चानो को भेद पाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है , पुलिस, प्रशाशन सी बी आई सब इनके आगे घुटने टिकते हैं .
भविष्य में यदि लोकपाल कि व्यवस्था केंद्रीय स्तर पर हो पाएगी तो उसका हश्र भी देखा जायेगा परन्तु फ़िलहाल जो स्थिति है वह laailaj नजर आती है और बार बार मन में यही ख़याल  आता है कि आखिर इस रात कि सुबह कब होगी .

रविवार, 6 मई 2012

टीम अन्ना का बिखरता सम्हलता आन्दोलन

अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ  एक  जरूरी  मुहीम  शुरू  की  थी .वास्तव  में ये कोई  राजनीतिक प्रयास   न हो  कर एक   नागरिक  प्रयास  था .इस  आन्दोलन  में प्रत्यक्ष  और अप्रत्यक्ष रूप में एक  बड़े  जन  समूह ने हिस्सा लिया .मीडिया और सोशल  नेटवर्किंग  साइटों  ने भी अहम्  भूमिका  निभाई .आन्दोलन  ने संसद से सड़क  तक  काफी  हंगामा  खड़ा  किया .एक समय   तो लगने लगा था  की यह लड़ाई एक  निर्णायक  मुकाम  तक  पहुच   जायेगी पर कुछ  वाजिब  और कुछ  गैरवाजिब  कारणों  के चलते यह  आन्दोलन  विखर गया .
इतिहास  साक्षी  है की लगभग  सभी आन्दोलन  विखर -विखर  कर ही सम्हले है .सैद्धांतिक  रूप  से इस की व्याख्या बड़ी सरल  है .कोई भी  आन्दोलन  कई चरणों  में अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है .जिस  प्रकार  हथोड़ी से बार बार  प्रहार  करने पर एक  सार्थक  ध्वनि  उत्पन्न  होती है ,उसी प्रकार  एक  आन्दोलन  को भी  बार बार अपने विपक्षी  पर प्रहार करना  होता है ,यह  प्रहार  हथोड़े के प्रहार  से भिन्न होता है .यह प्रहार एक मुट्ठी चावल की तरह होता है जो अपने लक्ष्य से टकरा कर  विखर जाते है .आन्दोलन के संचालकों  को उन  दानो  को फिर एकत्त्र कर के अगले प्रहार  के लिए तैयार करना होता है .एह क्रम  कई बार चलाना होता है पूरी निष्ठा और धैर्य के साथ .
टीम अन्ना का आन्दोलन एक  ऐसे ही दौर से गुजर रहा है .यह पहले चरण  का प्रहार करके विखर  गया है .पर यह कोई  निराशाजनक  स्थिति नहीं है बल्कि यह आन्दोलन  के विकास  की एक  अनिवार्य  अवस्था  है ,जरूरत इस बात की है  की आन्दोलन  की विखरी  कड़ियों को जोड़ा जाए ,उन्हें  पुनः संगठित  किया जाए  और नए  प्रहार की तैयारी की जाये .




शुक्रवार, 4 मई 2012

रॉक स्टार फिल्म के बहाने

पिछले दिनों  रॉक  स्टार  देखी .इम्तिआज़ अली ने एक बहुत  ही  खूबसूरत  फिल्म  बनाई है .फिल्म पूरी तरह से एक  प्रेम कहानी है पर यह   कहानी उन  तमाम  कहानिओ  से  बिलकुल अलग है जो हम अब  तक  देखते आये  है .फिल्म में दिखाई गई प्रेम  कहानी की शुरुवात तो बड़े  ही मजाकिया ढंग से होती है लेकिन  कहानी के विकास  के साथ  साथ  इस  कहानी  का स्वभाव बदलने लगता है .शोखी और चुहल से भरा प्रारंभिक  प्रेम  अंत तक  विध्वंसक हो जाता है .एह दोधारी तलवार की तरह दोनों को मारता है .
फिल्म को देखने के बाद धर्मवीर भारती के उपन्यास  गुनाहों का देवता की याद तजा हो गई .इस  उपन्यास  का प्रेम  भी  प्रेमी जोड़े को पनपने नहीं देता दोनों धीरे धीरे प्रेम की तीव्रता में घुलते जाते है .इम्तियाज  ने भी अपने प्रेमी जोड़े को इसी अंजाम  तक  पहुचाया है .
ये दो उदाहरण   कल्पना   की दुनिया के है जहाँ प्रेम  एक  नकारात्मक  परिणाम तक  पहुचता है पर असल  जिंदगी में प्रेम  की क्या स्थिति है ?क्या प्रेम  की प्रकृति  विध्वंसक है ?क्या वह कोई  विकार है ?इसका जवाब तो कोई दार्शनिक या पागल  ही दे सकता है ,पर ये सवाल  हमें पल भर ठहर कर सोचने को मजबूर अवश्य करते है .प्रेम की प्रकृति तो चाहे विध्वंसक  न हो पर उसकी परिणति जरूर  विध्वंसक  है .सामाजिक  विसंगतियां प्रेम जैसे सात्विक  भाव  को मलिन कर देती है .जिसके कारण  प्रेम  का फल  मीठा के बजाये कडुआ  हो जाता है .ऊपर के दोनों उदाहरणों में सामाजिक  जटिलताएं ही असली खलनायक  हैं .प्रेम  को जहरीला येही बनाती है .इन्ही के चलते प्रेम  जैसा सर्वोच्च सृजनात्मक  भाव  आत्म-हन्ता भाव  बन जाता है .

मंगलवार, 1 मई 2012

फुरसत के पल

आज  के समय में सबसे मुश्किल  है फुर्सत के पल  पाना। हम सब  कुछ खरीद  सकते  हैं  फुर्सत के पलों के सिवा।बहुत  सी चीजें  हैं  जिन्होंने इन  पलों को हम   से छीन  लिया  है  ।  अड्डेबाजी जैसे शब्द हमारे जीवन से दूर होते जा रहें हैं चौपाल जैसे बैठके अब शायद ही कही होती हो .पर कहना गलत होगा की ये सारी  चीजें  पूरी तरह से विलुप्त हो गयी है बल्कि ये किसी अन्य रूप में हमारे बीच है .हमारे फुर्सत के पल अब यही बीतते है .अड्डेबाजी की सारी खुराक हमें यहीं से मिलती है .गप्पबाजी ,मस्ती ,टीका टिप्पड़ी ,सब तो होता है .रास्ट्रीय,अंतररास्ट्रीय मुद्दे .फिल्म .खेल . राजनीति .साहित्य ,समाज ,रोजगार .पर्यावरण  सब की खबर यहाँ ली जाती है . 
पर आज  के दौर में होने वाली इस बैठकी का सबसे खास लक्षण है सदस्यों की आभासी उपस्थिति .साडी क्रियाएँ ,विमर्श .चुहल सब एक  आभासी दुनिया में घटित होती है .अन्य विशेषताओं में हम इसकी अतिप्रभओशीलता और बड़े समूह की भागीदारी .इस गप्पबाजी में बड़े समूह की उपस्थिति ही इसकी अति प्रभावशीलता का कारण है . कई उदाहरण हम अपने वास्तविक जीवन में देखते रहते है .कई सामजिक  राजनीतिक  आन्दोलन इसे अड्डेबाजी के बलबूते पर परवान चढ़े .अरब  की क्रांति  हो ,भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने देश की अंगड़ाई हो या अब निर्मल बाबा को ले कर हो रही खुसुर फुसुर  ये सब हमारे आद्देबजो के बल बूते पर ही तो हो सका है .जिनका न तो कोई चेहरा है ना ही नाम ,पर ये वो है जो किसी आन्दोलन को दिन रात  हवा देते रहते है.