गुरुवार, 28 जून 2012

पाकिस्तान का यू -टर्न

पाकिस्तान ने एक बार फिर इतिहास को दुहरा दिया .वैसे ये पाकिस्तान के चरित्र के अनुरूप ही  है पर सरबजीत के परिवार के लिए तो ये घटना एक भद्दा मजाक बन कर रह गयी है .साथ ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में पकिस्तान की जो किरकिरी हो रही है वो अलग . सरबजीत का परिवार वर्षो से यह लड़ाई लड़ रहा है ,कई मानवाधिकार कार्यकर्ता भी उनके साथ है ,पर इस घटनाक्रम के बाद तो सबकी आस धुंधली  नजर आने लगी है .

सरबजीत को सन 1990 में पाकिस्तान में हुए चार बम धमाकों के अभियुक्त के रूप में मंजीत सिंह के नाम से गिरफ्तार किया गया था .1991 में पकिस्तान की निचली अदालत ने सरबजीत उर्फ़ मंजीत सिंह को मौत की सजा सुनाई .जिसे हाईकोर्ट और फिर सुप्रीमकोर्ट ने बहाल  रखा .सरबजीत के मुताबिक वो एक निर्दोष किसान है जो गलती से पाक सीमा में घुस गया था .सरबजीत के परिवार ,उनके वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के द्वारा दया की कई अपीलें की गई ,पर स्थिति ज्यो की त्यों रही .

पाकिस्तानी सरकार ने सारे कयासों को झुठलाते  हुए इस बात को साफ़ तौर  पर कहा है की सरबजीत की सजा में कोई कमी नहीं की गयी है ,न ही राष्ट्रपति जरदारी ने सरबजीत की रिहाई का फैसला लिया है .इस सम्बन्ध में पाकिस्तान सरकार का तर्क है की सरबजीत अपने बयान  में अपना अपराध बहुत पहले कबूल कर चुका   है .

अगर ये बाते सच भी हो तो सवाल ये है की सरबजीत के  परिजनों के साथ ये  मजाक क्यों किया गया ,मीडिया और भारत सरकार को क्यों गुमराह किया गया .अपनी सफाई में पाकिस्तान अब चाहे  जो कह रहा हो पर ये मामला वहाँ की सरकार  की स्वायत्तता पर एक सवालिया निशान जरूर खड़ा करता है .पाकिस्तान सरकार के  असली हुक्मरान कोई और ही है ,जो संसद से बाहर  बैठ कर सरकार के फैसलों और नीतियों को प्रभावित करते है .पाकिस्तान में कट्टरपंथी ताकतों का सदा से बोल बाला रहा है .अब उसमे एक नाम और जुड़ गया है -आई एस आई का. सेना भी सरकारी कामकाज में पर्याप्त दखल और दिलचस्पी रखती है .सरकार की असली  नकेल इन्ही के हाथो में होती है .

इसमें जरा भी हैरानी नहीं होनी चाहिए की जब पाकिस्तान सरकार ने सरबजीत की रिहाई के फैसले को मीडिया के सामने पेश किया तो ये ताकते खुल कर विरोध में आ गई ,और नतीजा ये कि  सरकार को अगले 6 घंटे में ही अपना फैसला बदलना पड़ा और बोलने में लगभग एक जैसे नाम वाले उस भारतीय कैदी की रिहाई की घोषणा  करनी पड़ी ,जिसकी सजा 2004 में ही पूरी हो गई थी.

पकिस्तान ने उग्र राष्ट्रवाद की एक और मिसाल पेश की है .वहाँ की कुछ नियामक गैर सरकारी संस्थायों ने राजनीती और विदेशनीति में मानवीय पक्ष को एक बार फिर  दरकिनार किया है .





रविवार, 24 जून 2012

मृत्युं शरणम् गच्छामि

 सन २००४ में रान   ब्राउन की एक किताब आई थी -दी आर्ट आफ सुसाइड .अपने समय की बेस्ट सेलर रही यह किताब आत्महत्या के पूरे  वैश्विक इतिहास का लेखा जोखा प्रस्तुत करती है .आत्महत्या का दर्शन सभ्यता के बिभिन्न चरणों में कब और कैसे बदला ,इस किताब में बड़ी बेबाकी से दर्ज हुआ है .कई प्राचीन सभ्यताओं में आत्महत्या को अनैतिक या अपराधिक प्रयास नहीं माना  जाता था .किताब के मुताबिक ऐसा क्रिश्चियनिती के उदय से पहले था .प्राचीन ग्रीस और रोम इसके उदाहरण है जहाँ आत्महत्या करने वाले की किसी हीरो की तरह पूजा की जाती थी .उनकी प्रतिमाएं स्थापित की जाती थी और उनके नाम पर उत्सव होते थे .

आधुनिक योरोपीय दर्शन में कुछ ऐसे विचारक भी हुए है जिन्होंने "मरने की स्वाधीनता (right to die)" की भरपूर वकालत की है .नीत्शे ,डेविड ह्युम ,जेकब एपल कुछ ऐसे ही विचारक थे .ये नास्तिक विचारधारा का चरम था जो हर प्रकार की नैतिकता को स्थगित करने की सलाह देता था .

पर आज ,स्थिति बिलकुल ही भिन्न है .कोई भी धर्म या राज्य हमें आत्म हत्या की इजाजत नहीं देता है .आत्महत्या एक अपराध है ठीक उसी तरह जैसे किसी और की हत्या करना .भारतीय कानून में तो  दोनों अपराधों के लिए एक सामान धाराएँ सुनिश्चित की गई है .

आज वैश्विक स्तर  पर आत्महत्या के प्रति एक नकार का भाव है .यह निश्चित रूप से कायरता है ,जीवन से पलायन है और ईश्वर  से मिले एक खूबसूरत तोहफे का अपमान भी .....हमारी सोच और माहोल  दोनों में पर्याप्त बदलाव आया है ,पर अफ़सोस तो इस बात का है की आत्महत्या की घटनाएँ धडल्ले से हो रही है .कारण जो भी हो .

अभी अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल असोसिएसन  की एक रिपोर्ट  आयी  है आत्महत्या को ले कर .इस अध्ययन में पाया गया है की विकासशील देशो में आत्महत्या की घटनाएँ तेजी से बढ़ रही है .आत्महत्या की घटनाएँ भी इन्ही देशो में सबसे ज्यादा हो रही है .सन २०१० में आत्महत्या की १.८७ लाख घटनाये केवल भारत में हुई है .चीन में यह संख्या कोई २ लाख के आस पास बताई गई है .
यह अध्ययन कई चोंकाने वाले नतीजे पेश करता है .आत्महत्या में सबसे जादा भागीदारी पढ़े लिखे ,महानगरीय ,संपन्न नोजवानो की है .दक्षिण भारत के राज्यों तमिलनाडु ,आंध्र प्रदेश ,कर्णाटक और केरल में इन घटनाओ की तादाद सबसे जादा है .आत्महत्या करनेवालों में वो लोग सबसे जादा शामिल है जिनकी उम्र १५-२९ वर्ष है .

आज का मघ्यवर्गीय युवा संभवतः  इतिहास के सर्वाधिक दबाव वाले युग में जी रहा है .सुखी संपन्न होने की आकांक्षा आज बहुत तीव्र हो चुकी है .परिवार ,समाज करियर और प्रेम उन्हें लगातार तनावग्रस्त बना रहा है .उनका समायोजन गड़बड़ा रहा है.वो जल्दी ही अल्कोहलिज्म और ड्रग एडिक्सन  की गिरफ्त में चले जाते है .पर यह प्रवृति उनके लिए खतरनाक साबित होती है .जानकार  तो साफ कहते है की भारतीय युवाओ में आत्महत्या का मुख्य कारण है -अवसाद ,अल्कोहल और दृग्स  .पर इन सबके पीछे होता है उनके जीवन में मैनेजमेंट का अभाव .

यदि महिलाओं की बात करे तो आत्महत्या करने में उनका प्रतिशत पुरुषों से कही जादा है ,पर कारण बिलकुल भिन्न है .रिपोर्ट के मुताबिक विधवा ,तलाकशुदा या अकेली महिलाओं में ये प्रवृति अधिक पाई जाती है .क्योंकि उनमे अवसादग्रस्त होने की संभावना अधिक रहती है

वैसे भी हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य  के प्रति जागरूकता का पर्याप्त अभाव है .आज भी देश में कुछ गिने चुने मनोचिकित्सक  और उनके काउंसलिंग सेंटर है .आज की तेज रफ़्तार जिंदगी में यह हमारा खुद का दायित्व बनता है की हम अपने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य  दोनों की समुचित देखभाल करें .बच्चों को भी इसके प्रति जागरूक बनायें .उनमे स्वस्थ आदतों का विकास होने दें .उन्हें जीवन की सुन्दरता ,निरंतरता और अनिवार्यता का बोध कराएँ .

इसी क्रम में स्कूलों और कालेजो में समय समय पर युवाओं  के काउंसलिंग की व्यवस्था  होनी चाहिए .ठीक उसी तरह जैसे डांस ,म्युजिक  और योगा क्लासेज होती है .नहीं तो हमें इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से हमेसा दो चार होना ही पड़ेगा .आज जब हम अर्थवयवस्था में विकास के नए नए लक्ष्य निर्धारित कर रहे है ,तो यह आवश्यक हो जाता है की हम अपने बेशकीमती ,युवा और ऊर्जावान  मानव संसाधन को यूँ  ही बर्बाद न होने दे .

गुरुवार, 21 जून 2012

एक रिहाई ऐसी भी

आत्मनिर्वासन किसी व्यक्ति के जीवन में एक बड़ी त्रासदी है .स्वयं से विमोह ,जीवन से विराग ,संवादहीनता और भी न जाने कितने दुःख झेलने के बाद ऐसे स्थिति आती होगी .

ऐसे में व्यक्ति अपनी छोटी सी दुनिया को एक कैदखाने में बदल लेता है .अपने ही घर की दीवारें उसके लिए जेल की दीवारें बन जाती है ,जिसमे वह एक काल्पनिक जुर्म की सजा भोगने लगता है .दिनचर्या की सामान्य क्रियाओं में भी उसकी रूचि ख़त्म हो जाती है. भोजन और जल तक से दूर चला जाता है वह ...यह आत्मपीडा और अवसाद  का चरम होता है .

अभी एक खबर पढने को मिली .रोहणी दिल्ली की .जहाँ दो बहनें कुछ महीनो से ऐसी ही स्थितियों से गुजर रही थीं .वो लगातार भुखमरी की स्थिति से गुजरते हुए मरणासन्न स्थिति में पहुच गई थी.
.एक रिश्तेदार की दखल पे उन्हें अपने ही घर की कैद से मुक्त कराया गया .दोनों बहनों ,ममता और नीरजा का शरीर बेहद जर्जर हो चुका था किसी तरह उन्हें एम्बुलेंस में चढ़ाया गया था .एक साल हुए नोयडा से भी एक ऐसी ही खबर आई थी ,जहाँ दो बहनों को इसी तरह की कैद से आजाद कराया गया था

ये घटनाएँ शहरी जीवन की सीमाओं की ओर संकेत करती हैं. आपाधापी ,मारामारी और भागदौड़ से भरी आज  की जीवनशैली में अगर हम खुद को जरा भी अनफिट पाते  है तो स्वयं को ही नष्ट करने में जुट जाते हैं .यह आश्चर्यजनक है की महानगर में रहने वाली ,पढ़ी लिखी और पूर्णतया वयस्क दो लड़कियों ने मुश्किलों का सामना करने के बजाय ये रास्ता चुना .

फिर भी ये घटनाएँ एक सवाल पीछे छोड़ जाती है की उन परिस्थितियों का निर्माता को   है ,जो दो लड़कियों को सम्मान से ,निडर होकर जीने नहीं देता ?कोन  है वो खलनायक  जो उन्हें तिल -तिल कर मार रहा था ?

यह सवाल एक गहन समाजशास्त्रीय  विश्लेषण की मांग करता  है .साथ ही हमारी  पारिवारिक ,सामाजिक और राजनीतिक प्रणाली की यांत्रिकता, संवेदनहीनता और संवादहीनता  पर  ऊँगली  भी उठता है

रविवार, 17 जून 2012

सारा आकाश

जून के दूसरे  हफ्ते में अखबारों में दो ख़बरें बड़ी आम होती है ,एक तो मानसून के आने या न आने की खबर और दूसरी ,बोर्ड परीक्षाओं के टापर  की ख़बरें .अभी स्थिति ये है की मानसून से जुडी ख़बरें आ रही है और टापर  से जुडी ख़बरें आ चुकी है .पर इनमे जो खबर लम्बे समय तक याद रहने वाली है वो है दिव्या की.
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दिव्या चेन्नई की रहने वाली है और उसने हाईस्कूल के एक्जाम में लगभग 86% अंक हासिल किए है.

दिव्या का कहीं कोई घर नहीं है .उसके माँ बाप भी नहीं है . वो फुटपाथ पर रहती है अपने छोटे भाई बहनों और दादी के साथ .

हम जिन तकलीफों और प्रयासों की कल्पना भी नहीं कर सकते ,वो सब दिव्या ने अपनी पढाई जारी रखने के लिए सहे और किये है .दिव्या ने स्ट्रीट लैम्प  की रोशनी में देर रात तक जग कर पढाई की है .दिव्या ने आँधी  तूफ़ान में अपनी किताबो को बड़े जतन से  बचाया है .उसने शराबियों ,गुंडों और तमाम असामाजिक तत्वों से लड़कर पढने के लिए सुकून तलाशा है .उसने खुले आकाश के नीचे मोटर गाड़ियों के शोर शराबे में एक कठोर साधक की तरह अपना ध्यान स्थिर रखा है .तमाम व्यंग और ताने सुने है उसने. .....पर दिव्या ने वो कर दिखाया जो तमाम  सुख सुविधाओं में पलने वाले बच्चे अक्सर नहीं कर पाते .

ऐसा नहीं है की दिव्या का  साहस  कभी डगमगाया न हो .वो कई बार टूट टूट कर सम्हली है .बिखर बिखर कर समेटा सहेजा है खुद को.एक समय तो ऐसा भी आया था जब दिव्या  ने ये फैसला किया की अब वो पढाई नहीं कर पायेगी  .पर उसके स्कूल के एक टीचर ने फिर से उसकी हिम्मत बढाई  .लड़ाई तो सारी  दिव्या ने खुद लड़ी ,पर उसके टीचर एक तिनके के सहारे के रूप में उसके साथ रहे .

दिव्या ने ये सब कुछ किया  किसी पारिवारिक ,सरकारी या गैरसरकारी मदद के बिना  .उसके  व्यक्तिगत साहस ,जुझारूपन और जूनून ने उसे आज ये सफलता दिलाई .दिव्या आज उन लोगों के लिए मिसाल बन गई है है जो विपरीत परिस्थितियों से समझोता कर लेते है और अपने लक्ष्य से भटक जाते है .

सच ही है जिनके सिर पर छत  नहीं होती  , उनका सारा आकाश होता है .








  • फोटो -THE HINDU से साभार 
  • "सारा आकाश " वरिष्ठ लेखक राजेंद्र यादव का मशहूर उपन्यास है .

बुधवार, 13 जून 2012

(अ )ज्ञानपीठ के कारनामे

देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था इस वक्त विवादों में है .वैसे यह पहली बार नहीं है जब ज्ञानपीठ की कार्यशैली और वयवहार शैली पर उँगलियाँ उठी हो .इससे पहले भी दो- तीन मामले साहित्यिक हलकों में चर्चा के विषय बने और संस्थान  की खूब फजीहत हुई .नया ज्ञानोदय में छपे एक इंटरव्यू से उपजा विवाद इतना गहरा गया कि राष्ट्रपति तक को पत्र लिख कर शिकायत भेजी गयी .ध्यान रहे भारत का राष्ट्रपति संस्थान का प्रधान ट्रस्टी होता है .
भारतीय ज्ञानपीठ के पिछले इतिहास को उठा कर देखे तो ऐसे विवादों के लिए कोई गुंजाइश  नजर नहीं आती है .ज्ञानपीठ के प्रकाशन ,दिए जाने वाले पुरस्कार हमेशा निर्विवादित होते थे .पर आज जो मामला सड़क पर है उससे तो यही लगता है की भारतीय ज्ञानपीठ की कार्य शैली में परिवर्तन ही नहीं बल्कि गिरावट आई है , संस्थान की प्रतिष्ठा खतरे में पड़  गयी है .जो मामला इस वक्त चर्चा में है वो है युवालेखक गोरव सोलंकी का .सोलंकी ने विलम्ब की वजह से अपनी पांडुलिपियाँ  ,कई बार इग्नोर किये जाने और अपमानित होने के बाद ,वापस माँगा ली है .अपने पुराने संबंधों को तिलांजलि देते हुए उन्होंने ज्ञानपीठ के निदेशक के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया है .सोलंकी के इस साहस  पूर्ण कदम के बाद कई और पीड़ित और सताए हुए जन सामने आए है ,जो शायद अकेले इस संसथान से मोर्चा नहीं लेना चाहते थे .पर अब तो" साथी हाथ बढ़ाना " जैसी स्थिति हो गयी है .वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने भी अपने मोहभंग को सार्वजानिक कर दिया है .
ज्ञानपीठ के पतन की शुरुवात तबसे हुई जब संस्थान  के वर्तमान निदेशक ने पदभार ग्रहण किया ,तभी से ज्ञान पीठ के लम्पटीकरण का प्रारंभ हुआ .यह आपसी खुन्नस निकलने ,कृपापात्रों  को उपकृत करने और परस्पर पीठ खुजाने का अड्डा बन गया .आज आलम यह है की ज्ञानपीठ द्वारा संचालित कई महत्वाकांक्षी  योजनाये संदेह के दायरे में आ गयी है .
फिलहाल उम्मीद यही की जा सकती है की भारतीय ज्ञानपीठ  इस संकट से जल्द ही उबरेगा और अपनी प्रतिष्ठा  और गरिमा को पुनः स्थापित कर सकेगा








अबके हम बिछड़े तो ....

न कोई आहट न कोई हलचल ,बहुत ख़ामोशी से विदा हो लिए मेहँदी हसन साहब , अरसे की बीमारी और मुफलिसी झेलने के बाद ..........पर संगीत की दुनिया के  वो शहंशाह थे ,ग़ज़ल सम्राट थे , एक जीवित किवदंती थे और एक नर्म ,नाजुक और बेहद मीठी आवाज वाले फनकार .पर अफ़सोस कि वो आवाज अब थम सी गई है .......हालाँकि यह लिखते हुए खुद ही यकीन नहीं हो रहा है,  कही से न जाने क्यों लग रहा है कि यह खबर झूठी है .
मेहँदी हसन साहब के जाने से संगीत की दुनिया में जो शून्य बन गया है,वह फिर न भरा  जायेगा .महफ़िलों में वह रेशमी आवाज फिर न गूंजेगी .ग़ज़ल की सल्तनत आज मानो  लावारिस हो गई है .ग़ज़ल की  दुनिया का  दैदीप्यमान सितारा आज सितारों की दुनिया का नागरिक हो चुका  है ,करोड़ो लोगो के चेहरे पे मायूसी थिरक रही है ,साज खामोश है और महफ़िलें तो जैसे  वीरान हो गई  है .
मेहँदी हसन ने ग़ज़ल गायकी को जिस मुकाम तक पहुँचाया ,वो एक न भूलने वाला इतिहास बन चुका है . उन्होंने पाकिस्तानी फिल्म संगीत को भी नए आयाम दिए .अपनी आवाज की बुलंदियों से उसे भी नवाजा .पर उनकी महानता  के असली मायने तो हमें गजल गायकी में ही देखने को मिलते है .ईश्वर के इस नेक बन्दे ने अपना पूरा जीवन संगीत को अर्पित कर दिया ,और  करोड़ो चाहने वालों के दिलो दिमाग में हमेशा के लिए बस गए .अपनी जिंदगी में भारत और पाकिस्तान की अवाम का जो प्यार, सम्मान और अपनापन उन्हें नसीब हुआ वह दुर्लभ है .
थोडा सा दुःख इस बात का जरूर होता है की अपने आखिरी दिनों में वो थोड़े अलग थलग से पड़  गए थे .कई बार खबरे आयी कि पैसों  के आभाव के चलते उनका इलाज ठीक से नहीं हो पाया .पाकिस्तानी सरकार  के प्रयासों में भी थोड़ी कमी दिखी .हमारे देश के कुछ कलाकारों ने उन्हें भारत बुला कर उनके इलाज की पेशकश की ,तो वो भी ठुकरा दी गयी .शायद एक महान कलाकार की यही नियति होती है .इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है .
पर तमाम सियासी बाधाओं ,अडचनों ,और सीमाओं को लाँघ कर उनकी आवाज हमारे कानों में सदा बरसती रहेगी .और हमारी जिंदगी को जादा खूबसूरत और जीने लायक बनाती  रहेगी .........फिलहाल ये वक्त है अपनी नम  आँखों को पोछने का .
 अलविदा .......! शाह -ए -ग़ज़ल .




सोमवार, 11 जून 2012

......और अब राधे माँ

निर्मल बाबा के बाद अब राधे माँ चर्चा में है .निर्मल बाबा की तरह   राधे माँ की कहानी भी  एक सामान्य शख्स के भगवान बनने की कहानी है .आज राधे माँ के लाखों भक्त है जो उनके लिए पलक पावड़े बिछाये रहते है .बालीवुड की कई हस्तियाँ भी उनकी मुरीद है .पंजाब के एक छोटे से शहर होशियार पुर के एक मध्यवर्गीय परिवार  में  रहने वाली राधे माँ अज करोड़ो की संपत्ति की  है .बिना कोई ट्रस्ट बनाये उन्होंने करोड़ो की निजी संपत्ति बना ली है .राधे माँ सरकार को इनकम टैक्स भी नहीं देती है ,फिर  तो उनकी  सारी कमाई' काली कमाई "कही जाएगी .
राधे माँ का केस भी निर्मल   बाबा की तरह अतार्किक श्रद्धा ,अंध भक्ति और चमत्कारों के प्रति गहन आस्था का मामला है .
इधर जो मामले प्रकाश में आ रहे है उन्हें देख कर तो यही लगता है कि जैसे व्यक्ति पूजा में हम कोई रिकार्ड बनाने वाले है .व्यक्ति पूजा की दुर्लभ परंपरा हमे देश में सदियों से फल फूल रही है .बाबा संस्कृति हर युग में पनपी और परवान चढ़ी .यह एक तरह से हमारा सांस्कृतिक और बौधिक पिछड़ापन है .हम चमत्कार झड फूंक और जादू टोनों  की दुनिया में अब भी जी रहे है .ताज्जुब होता है की जहा एक वोर हम ज्ञान  विज्ञानं और तकनिकी में दिन रात नए नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे है वही दूरी वोर अंधविश्वास की  में दुबकी भी लगा रहे है .
यह विज्ञापन और मार्केटिंग का युग है .प्रचार प्रसार और नेटवर्किंग के सहारे आज बाबागिरी एक धधा बन गया है .





सचिन बने सांसद

संचिन का  सांसद बनना एक अच्छी खबर है या बुरी खबर ये तय  कर पाना थोडा मुश्किल है .यह सचिन के तमाम प्रसंशको के लिए एक खुशखबरी जरूर होगी पर इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है जो कुछ अलग ही संकेत दे रहा है.
सचिन एक दिग्गज खिलाडी है जो लगातार सुर्ख़ियों में बने रहते  है.जब वो अच्छा  खेलते है तब और जब नहीं खेलते है तब भी .उनके करोडो फैन उन्हें सिर  आँखों पर बिठाये रखते है .उनको सांसद बना कर जैसे सरकार ने स्वयं को ही उपकृत किया है .साथ ही इस होहल्ले में वह अपनी खामियों को छुपा लेना चाहती है . जहाँ सरकार तमाम बुनियादी सवालों से मुह फेर रही है ,उनसे बचने की कोशिश कर रही है ,वहीँ  वो सचिन को सांसद बना कर और एक नए विवाद को जन्म दे कर जनता को गुमराह करने की कोशिश कर रही है .
सचिन को राज्यसभा में मनोनीत कर के सरकार  ने किसी सद्भावना का परिचय नहीं दिया है .दरअसल वो सचिन के चमचमाते चेहरे के पीछे खुद को छुपाना चाहती है .यहाँ कुछ प्रश्न है जिनका जवाब सरकार   से मिलना ही चाहिए .
पहला सवाल है कैसे ?सचिन को किस आधार पर राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया ?राष्ट्रपति द्वारा जो 12 प्रख्यात व्यक्ति राज्यसभा के लिए मनोनीत किये जाते है उनके कार्य क्षेत्र  या विशेषज्ञता  क्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख संविधान में किया गया है .ये क्षेत्र . है -साहित्य ,कला ,विज्ञानं और समाजसेवा . खेल का कही कोई जिक्र नहीं किया गया है ऐसे में हमारी सरकार  को यह बताना चाहिए की महान  सचिन तेंदुलकर का योगदान इनमे से किस श्रेणी में आता  है .
दूसरा प्रश्न है सचिन ही क्यों ?यह सच है की सचिन एक सर्वाधिक लोकप्रिय समकालीन खिलाडी है पर हमारे देश में दिग्गज खिलाडियों की एक लम्बी फेहरिश्त  है .अगर क्रिकेट की ही बात करे तो ऐसे कई खिलाडी है जिनका चयन किया जा सकता था .पर हमारी सर्कार  तो जैसे उनका नाम तक नहीं जानती .यह विडम्बना ही कही जाएगी   की देश को अपनी कप्तानी में पहली बार विश्व कप दिलाने वाले कपिल देव के प्रति अक्सर सौतेला व्यवहार किया जाता है .कई ऐसे मौके आए  जब सार्वजनिक रूप से उनकी उपेक्षा की गई .अभी ताजा  मामला आई . पी .एल -6 का है जब देश के टेस्ट क्रिकेटरों को सम्मानित किया गया और कपिल देव को इस सम्मान के काबिल नहीं समझा गया.यह क्रिकेट की ग्लेमरस  दुनिया की एक काली  तस्वीर है .
इन सारी  बातो के मद्देनजर सरकार  द्वारा सचिन को लगातार उपकृत करते रहना समझ से परे है .........

 
















 

रविवार, 10 जून 2012

सत्यमेव जयते

आमिर  का शो अपने पहले ही एपिसोड से काफी लोकप्रिय हो चुका है .हिंदी चैनलों पर आने वाले तमाम रिअलिटी शोज से यह बिलकुल अलग   है .इस शो कि विषय वस्तु ,दृष्टि ,प्रस्तुति  और उद्देश्य सब हट के है .आमिर ने पहले एपिसोड में  कहा था की वो देश में  बदलाव  के सहयोगी  बनना चाहते   है .उनकी यह मंशा अब तक के सारे एपिसोड में साफ नजर आती है  .अपने शो में आमिर एक एक्टिविस्ट  की भूमिका में नजर आते है .बहुत जादा लाउड हुए बिना  वो समस्या की पूरी बारीकी से, कुशलतापूर्वक और कलात्मक ढंग से बखिया उधेड़ते है . यह शो आमिर की  सोच और उनके व्यक्तित्व की एक भिन्न छवि प्रस्तुत करता है .जहाँ एक ओर उनके समकालीन सिर्फ  तेल साबुन बेचने की होड़ में लगे है ,तो ऐसे में आमिर की यह कोशिश सराहनीय है .दूसरे  ढंग से कहे तो यह उनकी लोकप्रियता और मीडिया का सही इस्तेमाल है 
इस शो की टी .आर .पी ,मार्केटिंग और मुनाफे से जुड़े पहलुओं पर जरूर काफी शोध किया गया होगा और अब भी किया जा रहा होगा ,पर इन सब के बावजूद इस शो की अद्वितीयता से हम  इंकार नहीं कर सकते .इस शो में ऐसा बहुत कुछ है जो आमिर को और इस शो को अलग कतार  में खड़ा करता है .यह शो समाज के दमित ,अनछुए ,अचर्चित और बोल्ड विषयों को अपना लक्ष्य बनाता है .यह स्त्री ,बच्चो विकलांगो और प्रेम की बात करता है .हमें उन शर्मनाक सच्चाइयों से रूबरू कराता है जिनके या तो हम भुक्तभोगी है या फिर मूकदर्शक .ये हमें जिंदगी के ऐसे अँधेरे कोनो की सैर कराता है जहाँ हम जाने से घबराते है .यह हमारे सभ्य होने  की विशद पड़ताल करता है .हमें हमारे अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत करता है .
आमिर के शो के केंद्र में मनुष्य है और मनुष्यता भी .जीवन की बेहतरी का एक इमानदार स्वप्न है यहाँ जो हम रोज देखते है .

शनिवार, 9 जून 2012

एक और शिगूफा





कपिल सिब्बल साहब एक और दूर की कोड़ी  खोज कर लाये है कि -देश  के शिक्षक पर्याप्त शिक्षित नहीं  है .सिब्बल साहब ने जो तीर  छोड़ा है वह घूम कर उन्ही को निशाना बना रहा है .यह बात जरूर सही हो सकती है की देश में योग्य शिक्षको  का अभाव है या  वो  लोग शिक्षक के रूप में कार्य   कर रहे है जिनमे शिक्षण अभिरुचि है ही नहीं .पर ये प्रश्न अंततः मानव संसाधन विकास मंत्री जैसे जिम्मेदार व्यक्ति  को ही कटघरे  में खड़ा करते है .जिन  एक आध प्रश्नों  से सिब्बल साहब रूबरू नहीं   होना चाहते वो यहाँ दिए जा रहे है -
  • शिक्षकों की योग्यता का निर्धारण जो संस्था करती है वो कपिल जी के मंत्रालय के अधीन कार्य करती है .कपिल जी  खुद भी इस  सम्बन्ध में काफी माथापच्ची कर चुके है .तो  सवाल यह है   कि  क्या उनके मंत्रालय ने योग्यता निर्धारण के सभी पहलुओं  पर विचार कर लिया है ?
  • शिक्षको की चयन प्रक्रिया  का निर्धारण भी कपिल जी के मंत्रालय की देख रेख में होता है .अभी पिछले वर्ष प्राथमिक  शिक्षको  के चयन में टी.ई .टी को अनिवार्य किया गया है, सवाल यह है की क्या टी ई टी वह  फुलप्रूफ तरीका है जिससे केवल शिक्षण अभिरुचि वाले लोग फ़िल्टर हो कर शिक्षक के रूप में चयनित होंगे ?
  • अगला और  महत्वपूर्ण प्रश्न है शिक्षण परिस्थिति को ले कर .मान  लेते है की सिब्बल साहब ने योग्य और अभिरुचि संपन्न लोगो को शिक्षक के रूप में नियुक्त   कर दिया पर  उस शिक्षक ने यह अनुभव किया की उस क्षेत्र  विशेष में शिक्षण  हेतु सहायक परिस्थितियाँ  नहीं है .अभिभावक बच्चो की पढाई में रूचि नहीं ले रहे है ,अध्यापक को गैर शैक्षिक कार्यों में लिप्त रखा  जाता है ,एक अध्यापक के बजाय  एक क्लर्क का काम  उससे लिया जाता है .ऐसे में शिक्षा  व्यवस्था  प्रभावित तो जरूर होगी .तो प्रश्न यह है की क्या सिब्बल साहब किसी ऐसी प्रणाली या  की आवश्यकता अनुभव करते है जो शिक्षको को इन व्यावहारिक कठिनाइयों से निजात दिला सके ?
 और  सिब्बल साहब क्या आप और  आपकी सरकार शिक्षक को एक आम सरकारी कर्मचारी समझना फोरन बंद नहीं कर सकती  .





















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गुरुवार, 7 जून 2012

संसद के साठ बरस

भारतीय  संसद ने अपने साठ बरस पूरे कर लिए .किसी देश के इतिहास में वैसे तो साठ वर्ष का समय बहुत कम होता है फिर भी अपनी समझ व प्रयासों को बेहतर बनाने के लिए इन साठ वर्षों का मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है .
साठ सालों में हमारी संसद ने कई उतार  चढ़ाव  देखे ,इनमे संसद पर किया गया  गया एक आतंकी हमला भी शामिल है .हमारी संसद ने कई बार गर्व से हमारा सिर  ऊँचा किया तो कई बार हम शर्म से पानी पानी भी हुए .अच्छे  व बुरे पहलू हर एक चीज के होते है .पर चूँकि संसद देश की सर्वोच संवैधानिक संस्था है ,इसलिए उससे केवल अच्छे कार्यों की अपेक्षा स्वाभाविक है
भारतीय  लोकतंत्र धीरेधीरे अपनी जड़ें  जमा रहा है .नागरिकों में लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा धीरे धीरे मजबूती पा रही है .लोकतान्त्रिक संस्कारों का विकास हो रहा है .हम एक परिपक्व लोकतंत्र की  एक ओर एक एक कदम बढ़ाते जा रहे है .
पर भारतीय लोकतंत्र की कुछ कठिनाइयाँ  भी है .साथ ही अफ़सोस इस बात का है की इन कठिनाइयों  का सामना करने के लिए अपेक्षित साहस   और नैतिक बल का हममे नितांत अभाव है .हम हर बार पाकिस्तान ,बांग्लादेश ,नेपाल आदि  का हवाला दे कर बच नहीं  सकते .यह  कहने का कोई औचित्य  नहीं कि  हमारी व्यवस्था  उनसे बेहतर  है .हमारी संसदीय प्रणाली में व्याप्त कठिनाइयों  को हमें हर हाल  में दूर करना होगा .तभी हमारी गिनती अगली कतार के देशों में हो सकेगी .साथ ही हमारी संसद की गरिमा में भी चार चाँद लगेंगे .
राजनीति   में व्याप्त अपराधीकरण  ,भ्रष्टाचार ,आर्थिक असमानता,महिलाओं और बच्चों  के नागरिक अधिकारों का संरक्षण अदि कुछ ऐसे मुद्दे है जो निरंतर बहस के विषय जरूर बनते  है पर किसी अंजाम तक नहीं पहुँच पाते  .हमें इन सवालो के हल खोजने होंगे और अभी खोजने होंगे .    

कृपा का कारोबार

अभी लखनऊ में निर्मल बाबा पर एक और केस दर्ज किया गया .जो धाराएँ लगी हैं वो हैं -417,419 व 420. निर्मल बाबा  सवालों से घिरते जा रहें हैं.उनके भक्तों की संख्या में भी गिरावट दर्ज की गई है . तो जाहिर है की खाते में  आने  वाली रकम की  ग्रोथ भी कम हुई  होगी .निर्मल बाबा जब अपनी सफाई में कुछ कहते  है तो वह निरर्थक  और अनर्गल प्रलाप की तरह लगता है .मुहावरे में इसे "सिट्टी पिट्टी गुम  होना" कहा जाता  है .उनकी बातों में तार्तम्यता  का घोर आभाव नजर  आता है .उनकी बातों  में कोई आध्यत्मिक टच  भी  नहीं होता है .वो किसी आध्यात्मिक  परंपरा से जुड़े भी नहीं है .उनकी वाक्कुशलता  भी कुछ खास नहीं है, की इतने लोग उनके मायाजाल में फंस सके .उनसे बेहतर लच्छेदार  बातें तो बन्दर नचाने  वाले या बस अड्डे  पर चूरन या तेल बेचने वाले कर लेते है .निर्मल बाबा अपने भक्तों को जो उपाय बतातें  है वो भी प्रथमदृष्ट्या ऊलजलूल ही जान पड़ते है  .तो फिर सवाल ये है की निर्मल बाबा का कारोबार कैसे चल निकला  ?
दरअसल निर्मल बाबा ने देश की दुखी परेशानहाल  जनता की भावुकता  का जबदस्त दोहन किया .हम आम भारतीय नागरिको की यह मानसिकता है  कि हम परिश्रम और ईमानदारी से सुखी होने के बजाये चमत्कारों के दम पर सुखी होनाचाहते  है .हम चाहते है की मंदिर में 50 रू  का प्रसाद  चढ़ा  कर हमें 5 लाख का लाभ हो .हमारी यही मानसिकता भारतीय बाबाओं को अरबपति बना कर उन्हें भगवन की तरह पूजती है